तीलू रौतेली (Tilu Rauteli)
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गढ़वाल की एक ऐसी वीरांगना जो केवल 15 वर्ष की उम्र में रणभूमि में कूद पड़ी थी और सात साल तक जिसने अपने दुश्मन राजाओं को छठी का दूध याद दिलाया था। गढ़वाल की इस वीरांगना का नाम था ‘तीलू रौतेली’। तीलू रौतेली का जन्म पौड़ी गढ़वालके गुराड गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम भूपसिंह था, जो गढ़वाल नरेश के सेना में थे।
तीलू रौतेली का जन्म कब हुआ। इसको लेकर कोई तिथि स्पष्ट नहीं है। लेकिन गढ़वाल में 8 अगस्त को उनकी जयंती मनायी जाती है और यह माना जाता है, कि उनका जन्म 8 अगस्त 1661 को हुआ था। उस समय गढ़वाल में पृथ्वीशाह का राज था।
गढ़वाल के लोककथाओं के अनुसार गढ़वाल के राजा और कत्यूरी राजाओं के बीच युद्ध आम माना जाता था। तीलू रौतेली भगतू और पथ्वा की छोटी बहन थी, जिसने बचपन से ही तलवार और बंदूक चलाना सीख लिया था। छोटी उम्र में ही तीलू की सगाई ईड़ा के भुप्पा नेगी से तय कर दी गयी थी, लेकिन शादी होने से पहले ही उनका मंगेतर युद्ध में वीर गति का प्राप्त हो गया था। तीलू ने इसके बाद शादी नहीं करने का फैसला किया था। इस बीच कत्यूरीराजा धामशाही ने अपनी सेना को मजबूत किया और गढ़वाल पर हमला बोल दिया। खैरागढ़ में यह युद्ध लड़ा गया। मानशाह और उनकी सेना ने धामशाही की सेना का डटकर सामना किया लेकिन आखिर में उन्हें चौंदकोट गढ़ी में शरण लेनी पड़ी। इसके बाद भूपसिंह और उनके दोनों बेटों भगतू और पथ्वा ने मोर्चा संभाला। भूपसिंह सरैंखेत या सराईखेत और उनके दोनों बेटे कांडा में युद्ध में मारे गये।
सर्दियों के समय में कांडा में बड़े मेले का आयोजन होता था और परंपरा के अनुसार भूपसिंह का परिवार उसमें हिस्सा लेता था। तीलू ने भी अपनी मां से कहा कि वह मेले में जाना चाहती है। इस पर उसकी मां ने कहा, ”कौथिग जाने के बजाय तुझे अपने पिता, भाईयों और मंगेतर की मौत का बदला लेना चाहिए। अगर तू धामशाही से बदला लेने में सफल रही तो जग में तेरा नाम अमर हो जाएगा। कौथिग का विचार छोड़ और युद्ध की तैयारी कर।” मां की बातों ने तीलू में भी बदले की आग भड़का दी और उन्होंने उसी समय घोषणा कर दी कि वह धामशाही से बदला लेने के बाद ही कांडा कौथिग जाएगी। उन्होंने क्षेत्र के सभी युवाओं से युद्ध में शामिल होने का आह्वान किया और अपनी सेना तैयार कर दी। तीलू ने सेनापति की पोशाक धारण की। उनके हाथों में चमचमाती तलवार थी। उनके साथ ही उनकी दोनों सहेलियों बेल्लु और रक्की भी सैनिकों की पोशाक पहनकर तैयार हो गयी। उन्होंने पहले अपनी कुल देवी राजराजेश्वरी देवी की पूजा की और फिर काले रंग की घोड़ी ‘बिंदुली’ पर सवार तीलू, उनकी सहेलियां और सेना रणक्षेत्र के लिये निकल पड़ी। हुड़की वादक घिमंडू भी उत्साहवर्धन के लिये उनके साथ में था।
तीलू ने खैरागढ़ (वर्तमान में कालागढ़) से अपने अभियान की शुरूआत की और इसके बाद लगभग सात साल तक वह अधिकतर समय युद्ध में ही व्यस्त रही। उन्होंने दो दिन तक चली जंग के बाद खैरागढ़ को कैत्यूरी सेना से मुक्त कराया था।
तीलू ने खैरागढ़ के बाद टकोलीखाल में मोर्चा संभाला और वहां बांज की ओट से स्वयं विरोधी सेना पर गोलियां बरसायी। कैत्यूरी सेना का नेतृत्व कर रहा बिंदुआ कैंत्यूरा को जान बचाकर भागना पड़ा। इसके बाद उन्होंने भौण (इडियाकोट) पर अपना कब्जा जमाया।
तीलू जहां भी जाती वहां स्थानीय देवी या देवता की पूजा जरूर करती थी और वहीं पर लोगों का उन्हें समर्थन भी मिलता था। उन्होंने सल्ट महादेव को विरोधी सेना से मुक्त कराया लेकिन भिलण भौण में उन्हें कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। भिलण भौण के युद्ध में उनकी दोनों सहेलियां बेल्लु और रक्की वीरगति को प्राप्त हो गयी। तीलू इससे काफी दुखी थी लेकिन इससे उनके अंदर की ज्वाला और धधकने लगी। उन्होंने जदाल्यूं की तरफ कूच किया और फिर चौखुटिया में गढ़वाल की सीमा को तय की। इसके बाद सराईखेत और कालिंका खाल में भी उन्होंने कैत्यूरी सेना को छठी का दूध याद दिलाया।
सराईखेत को जीतकर उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया लेकिन यहां युद्ध में उनकी प्रिय घोड़ी बिंदुली को जान गंवानी पड़ी। बीरोंखाल के युद्ध के बाद उन्होंने वहीं विश्राम किया।
इसके बाद उन्होंने कांड़ागढ़ लौटने का फैसला किया लेकिन शत्रु के कुछ सैनिक उनके पीछे लगे रहे। तीलू और उनकी सेना ने तल्ला कांडा में पूर्वी नयार के किनारे में अपना शिविर लगाया। रात्रि के समय में उन्होंने सभी सैनिकों को सोने का आदेश दे दिया। चांदनी रात थी और पास में नयार बह रही थी। गर्मियों का समय था और तीलू सोने से पहले नहाना चाहती थी। उन्होंने अपने साथी सैनिकों और अंगरक्षकों को नहीं जगाया और अकेले ही नयार में नहाने चली गयी। तीलू पर नहाते समय ही एक कत्यूरी सैनिक रामू रजवार ने पीछे से तलवार से हमला किया। उनकी चीख सुनकर सैनिक जब तक वहां पहुंचते तब तक वह स्वर्ग सिधार चुकी थी। तीलू रौतेली की उम्र तब केवल 22 वर्ष की थी, लेकिन वह इतिहास में अपना नाम अमर कर गयी।
तीलू रौतेली की याद में गढ़वाल में रणभूतनचाया जाता है। डा. शिवानंद नौटियाल ने अपनी पुस्तक ‘गढ़वाल के लोकनृत्य’ में लिखा है, ”जब तीलू रौतेली नचाई जाती है तो अन्य बीरों के रण भूत/पश्वा जैसे शिब्बू पोखरियाल, घिमंडू हुडक्या, बेलु-पत्तू सखियाँ, नेगी सरदार आदि के पश्वाओं को भी नचाया जाता है। सबके सब पश्वा मंडांण में युद्ध नृत्य के साथ नाचते हैं।”
जिया रानी का बचपन का नाम मौला देवी था। वो हरिद्वार(मायापुर) के राजा अमरदेव पुंडीर की पुत्री थी। सन 1192 में देश में तुर्कों का शासन स्थापित हो गया था, मगर उसके बाद भी किसी तरह दो शताब्दी तक हरिद्वार में पुंडीर राज्य बना रहा, मगर तुर्कों के हमले लगातार जारी रहे और न सिर्फ हरिद्वार बल्कि गढ़वाल और कुमायूं में भी तुर्कों के हमले होने लगे। ऐसे ही एक हमले में कुमायूं ( पिथौरागढ़) के कत्युरीराजा प्रीतम देव ने हरिद्वार के राजा अमरदेव पुंडीर की सहायता के लिए अपने भतीजे ब्रह्मदेव को सेना के साथ सहायता के लिए भेजा। जिसके बाद राजा अमरदेव पुंडीर ने अपनी पुत्री मौला देवी का विवाह कुमायूं के कत्युरी राजवंश के राजा प्रीतमदेव उर्फ़ पृथ्वीपाल से कर दिया। मौला देवी प्रीतमपाल की दूसरी रानी थी। मौला रानी से तीन पुत्र धामदेव, दुला, ब्रह्मदेव हुए जिनमे ब्रह्मदेव को कुछ लोग प्रीतम देव की पहली पत्नी से मानते हैं। मौला देवी को राजमाता का दर्जा मिला और उस क्षेत्र में माता को जिया कहा जाता था इस लिए उनका नाम जिया रानी पड़ गया, कुछ समय बाद जिया रानी की प्रीतम देव से अनबन हो गयी और वो अपने पुत्र के साथ गोलाघाट चली गयी जहां उन्होंने एक खूबसूरत रानी बाग़ बनवाया,यहाँ जिया रानी 12 साल तक रही ।
1398 में मध्य एशिया के हमलावर तैमुर ने भारत पर हमला किया और दिल्ली मेरठ को रौंदता हुआ वो हरिद्वार पहुंचा जहाँ उस समय वत्सराजदेव पुंडीर शासन कर रहे थे, उन्होंने वीरता से तैमुर का सामना किया, मगर शत्रु सेना की विशाल संख्या के आगे उन्हें हार का सामना करना पड़ा, पुरे हरिद्वार में भयानक नरसंहार, जबरन धर्मपरिवर्तन हुआ और राजपरिवार को भी उतराखण्ड के नकौट क्षेत्र में शरण लेनी पड़ी वहां उनके वंशज आज भी रहते हैं और मखलोगा पुंडीर के नाम से जाने जाते हैं।
तैमूर ने एक टुकड़ी आगे पहाड़ी राज्यों पर भी हमला करने भेजी, जब ये सूचना जिया रानी को मिली तो उन्होंने इसका सामना करने के लिए कुमायूं के राजपूतो की एक सेना का गठन किया, तैमूर की सेना और जिया रानी के बीच रानीबाग़ क्षेत्र में युद्ध हुआ जिसमे मुस्लिम सेना की हार हुई। इस विजय के बाद जिया रानी के सैनिक कुछ निश्चिन्त हो गये, पर वहां दूसरी अतिरिक्त मुस्लिम सेना आ पहुंची जिससे जिया रानी की सेना की हार हुई, और सतीत्व की रक्षा के लिए एक गुफा में जाकर छिप गयी।
जब प्रीतम देव को इस हमले की सूचना मिली तो वो स्वयं सेना लेकर आये और मुस्लिम हमलावरों को मार भगाया, इसके बाद में वो जिया रानी को पिथौरागढ़ ले आये, प्रीतमदेव की मृत्यु के बाद मौला देवी ने बेटे धामदेव के संरक्षक के रूप में शासन भी किया था। लेकिन जिया रानी स्वयं शासन के निर्णय लेती थी। माना जाता है कि राजमाता होने के चलते उसे जियारानी भी कहा जाता है।
Jiya Rani Temple – Rani Bagh (Kathgodam, Nainital)
वर्तमान में रानीबाग में जियारानी की गुफा नाम से प्रचलित है। कत्यूरी वंशज प्रतिवर्ष उनकी स्मृति में यहां पहुंचते हैं। यहाँ जिया रानी की गुफा के बारे में एक और किवदंती प्रचलित है। “कहते हैं कत्यूरी राजा पृथवीपाल उर्फ़ प्रीतम देव की पत्नी रानी जिया यहाँ चित्रेश्वर महादेव के दर्शन करने आई थी। वह बहुत सुन्दर थी। जैसे ही रानी नहाने के लिए गौला नदी में पहुँची, वैसे ही मुस्लिम सेना ने घेरा डाल दिया। रानी जिया शिव भक्त और सती महिला थी।उसने अपने ईष्ट का स्मरण किया और गौला नदी के पत्थरों में ही समा गई। मुस्लिम सेना ने उन्हें बहुत ढूँढ़ा परन्तु वे कहीं नहीं मिली। कहते हैं, उन्होंने अपने आपको अपने घाघरे में छिपा लिया था। वे उस घाघरे के आकार में ही शिला बन गई थीं। गौला नदी के किनारे आज भी एक ऐसी शिला है, जिसका आकार कुमाऊँनी घाघरे के समान हैं। उस शिला पर रंग-विरंगे पत्थर ऐसे लगते हैं – मानो किसी ने रंगीन घाघरा बिछा दिया हो। वह रंगीन शिला जिया रानी के स्मृति चिन्ह माना जाता है। रानी जिया को यह स्थान बहुत प्यारा था। यहीं उसने अपना बाग लगाया था और यहीं उसने अपने जीवन की आखिरी सांस भी ली थी। वह सदा के लिए चली गई परन्तु उसने अपने सतीत्व की रक्षा की। तब से उस रानी की याद में यह स्थान रानीबाग के नाम से विख्यात है।
रानी कर्णावती (Rani Karnavati)
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रानी कर्णावती, पवांर वंशके राजा महिपतशाह की पत्नी थी। उनके जन्म व जन्मस्थान के सम्बंधित कोई भी ठोस जानकारी उपलब्ध नही है। यह वही महिपतशाह थे जिनके शासन में माधोसिंह जैसे सेनापति हुए थे। माधोसिंहके बारे में गढ़वाल में काफी किस्से प्रचलित हैं। पहाड़ का सीना चीरकर अपने गांव मलेथा में पानी लाने की कहानी सभी गढ़वाली को पता होगी।
जब महिपतशाह गढ़वाल के राजा थे तब 14 फरवरी 1628 को शाहजहां का राज्याभिषेक हुआ था। जब वह गद्दी पर बैठे तो देश के तमाम राजा आगरा पहुंचे थे। लेकिन राजा महिपतशाह नहीं गये। कहा जाता है कि शाहजहां इससे चिढ़ गया था। इसके अलावा किसी ने मुगल शासकों को बताया कि गढ़वाल की राजधानी श्रीनगर में सोने की खदानें हैं। इस बीच महिपतशाह और उनके वीर सेनापति की मौत हो गई। राजा महिपतशाह की मृत्यु के समय उनके पुत्र पृथ्वीपतिशाह केवल सात साल के थे। तब राजगद्दी पर पृथ्वीपतिशाह ही बैठे लेकिन राजकाज उनकी मां रानी कर्णावती ने चलाया।
शाहजहां ने इसका फायदा उठाकर गढ़वाल पर आक्रमण करने का फैसला किया। उन्होंने अपने एक सेनापति नजाबत खान को यह जिम्मेदारी सौंपी। “निकोलो मानुची” ने अपनी किताब में लिखा है कि मुगल जनरल 30 हजार घुड़सवारों और पैदल सेना के साथ गढ़वाल की तरफ कूच कर गया था। गढ़वाल के राजा (यानि रानी कर्णावती) ने उन्हें अपनी सीमा में घुसने दिया लेकिन जब वे वर्तमान समय के लक्ष्मणझूला से आगे बढ़े तो उनके आगे और पीछे जाने के रास्ते रोक दिये गये। गंगा के किनारे और पहाड़ी रास्तों से अनभिज्ञ मुगल सैनिकों के पास खाने की सामग्री समाप्त होने लगी। मुगल सेना कमजोर पड़ने लगी और ऐसे में सेनापति ने गढ़वाल के राजा के पास संधि का संदेश भेजा लेकिन उसे ठुकरा दिया गया। मुगल सेना की स्थिति बदतर हो गयी थी। लेकिन रानी कर्णावती ने मुगलों को सजा देने का नायाब तरीका निकाला। रानी ने संदेश भिजवाया कि वह सैनिकों को जीवनदान दे सकती है लेकिन इसके लिये उन्हें अपनी नाक कटवानी होगी। मुगल सैनिकों के हथियार छीन दिये गये थे और आखिर में उनके एक एक करके नाक काट दिये गये।
कहा जाता है कि जिन सैनिकों की नाक काटी गयी उनमें सेनापति नजाबत खान भी शामिल था। वह इससे काफी शर्मसार था और उसने मैदानों की तरफ लौटते समय अपनी जान दे दी थी। उस समय रानी कर्णावती की सेना में एक अधिकारी दोस्त बेग हुआ करता था, जिसने मुगल सेना को परास्त करने और उसके सैनिकों को नाक कटवाने की कड़ी सजा दिलाने में अहम भूमिका निभायी थी। यह 1640 के आसपास की घटना है।
कुछ इतिहासकार रानी कर्णावती के बारे में इस तरह से बयां करते हैं कि वह अपने विरोधियों की नाक कटवाकर उन्हें कड़ा दंड देती थी। इनके अनुसार कांगड़ा आर्मी के कमांडर नजाबत खान की अगुवाई वाली मुगल सेना ने जब दून घाटी और चंडीघाटी (वर्तमान समय में लक्ष्मणझूला) को अपने कब्जे में कर दिया तब रानी कर्णावती ने उसके पास संदेश भिजवाया कि वह मुगल शासक शाहजहां के लिये जल्द ही दस लाख रूपये उपहार के रूप में उसके पास भेज देगी। नजाबत खान लगभग एक महीने तक पैसे का इंतजार करता रहा। इस बीच गढ़वाल की सेना को उसके सभी रास्ते बंद करने का मौका मिल गया। मुगल सेना के पास खाद्य सामग्री की कमी पड़ गयी और इस बीच उसके सैनिक एक अज्ञात बुखार से पीड़ित होने लगे। गढ़वाली सेना ने पहले ही सभी रास्ते बंद कर दिये थे और उन्होंने मुगलों पर आक्रमण कर दिया। रानी के आदेश पर सैनिकों के नाक काट दिये गये। नजाबत खान जंगलों से होता हुआ मुरादाबाद तक पहुंचा था। कहा जाता है कि शाहजहां इस हार से काफी शर्मसार हुआ था। शाहजहां ने बाद में अरीज खान को गढ़वाल पर हमले के लिये भेजा था लेकिन वह भी दून घाटी से आगे नहीं बढ़ पाया था। बाद में शाहजहां के बेटे औरंगजेब ने भी गढ़वाल पर हमले की नाकाम कोशिश की थी।
रानी कर्णावती का जिक्र ‘मुगल इंडिया’ भी मिलता है, लेकिन उसमे किसी का नाम नही लिया गया है बस गढ़वाल की रानी के नाम से बताया गया है, स्वभाविकत: वह रानी कर्णावती ही है। ‘मुगल इंडिया’ को स्टोरिया डो मोगोर ने 1653 से 1708 के बीच लिखा था, जबकि मुगलों ने 1640 के आसपास गढ़वाल पर हमला किया था।
माधो सिंह भंडारी (Madho Singh Bhandari)
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माधो सिंह भंडारी जिन्हें माधो सिंह मलेथा भी कहा जाता है। उनका जन्म सन 1595 के आसपास उत्तराखंड राज्य (Uttarakhand state) के टिहरीजनपद (Tehari district) के मलेथा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम सोणबाण कालो भंडारी था। जो वीरता के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी बुद्धिमता और वीरता से प्रभावित होकर तत्कालीन गढ़वाल नरेश ने सोणबाण कालो भंडारी को एक बड़ी जागीर भैंट की थी। माधो सिंह भी अपने पिता की तरह वीर व स्वाभिमानी थे।
माधो सिंह भंडारी कम उम्र में ही श्रीनगर के शाही दरबार की सेना में भर्ती हो गये और अपनी वीरता व युद्ध कौशल से सेनाध्यक्ष के पद पर पहुंच गये। वह राजा महिपात शाह (1629-1646) की सेना के सेनाध्यक्ष थे। जहां उन्होने कई नई क्षेत्रों में राजा के राज्य को बढ़ाया और कई किले बनवाने में मदद की।
एक बार छुट्टियों में जब वह अपने गांव मलेथा आये तो वहां उन्हें वह स्वादिष्ट भोजन नहीं मिला जिसको वह राज-महल में पाने के आदी थे। वह अपनी पत्नी पर गुस्सा हुए और उन्होने अच्छा भोजन मांगा जबाब में पत्नी नें उन्हे वे सूखे खेत दिखा दिये जो पानी के अभाव में अनाज, फल व सब्जियां उगाने में असमर्थ थे। माधों सिंह बैचेन हो गये और उन्होनें निश्चय किया किसी भी तरह मलेथा गांव में पानी लेकर आयेंगे। गांव से कुछ दूर चन्द्रभागा नदी बहती थी, लेकिन नदी व गांव के बीच में बड़े-बड़े पहाड़ व चट्टानें थीं। माधों सिंह ने विचार किया कि अगर किसी प्रकार पर्वतीय नदी के मध्य आने वाले पहाड़ के निचले भाग में सुरंग निर्माण की जाये तो नदी का पानी गांव तक पहुंचाया जा सकता हैं। दृढ़ निश्चयी माधो सिंह ने सुरंग खोदने वाले विशेषज्ञों व गांव वालों को साथ लेकर काम शुरु कर दिया। महीनों की मेहनत के बाद सुरंग तैयार हो गयी। सुरंग के ऊपरी भाग में मजबूत पत्थरों को लोहे की कीलों से इस प्रकार सुदृढ़ता प्रदान की गयी कि भीषण प्राकृतिक आपदा का भी उन पर प्रभाव नहीं पड़ सके।
माधो सिह को अपने जवान पुत्र गजे सिंह को नहर बनाने की प्रक्रिया में बलि पर चढ़ाना पड़ा। उस क्षेत्र की लोक कथाओं के अनुसार जब सुरंग बनकर तैयार हो गयी तब नदी के पानी को सुरंग में ले जाने के अनेक प्रयास किये गये लेकिन कई तरह के बद्लावों, पूजा पाठों के बाद भी नदी का पानी सुरंग तक नहीं पहुंच पाया। माधो सिंह काफी परेशान हो गये। एक रात माधो सिंह को सपना आया कि उन्हें पानी लाने के लिये अपने एकमात्र बेटे की बलि देनी पड़ेगी। पहले तो वह इसके लिये तैयार नहीं थे, लेकिन बाद में अपने पुत्र गजे सिंह के ही कहने पर वह तैयार हो गये। उनके पुत्र की बलि दी गयी और उसका सर सुरंग के मुँह पर रख दिया गया। इस बार जब पानी को मोड़ा गया तो इस बार पानी सुरंग से होते हुए सर को अपने बहाव में बहा ले गया और उसे खेतों में प्रतिष्ठापित कर दिया। जल्दी ही माधों सिंह की छुट्टियां खतम हो गयी और वह वापस श्रीनगर चले गये फिर कभी अपने गाँव लौट कर न आने का निर्णय किया।
आज मलेथा गांव समृद्ध व हरा भरा है, लेकिन उस गांव के लोग अभी भी अपने नायक माधो सिंह को नहीं भूले हैं और वह माधों सिंह द्वारा बनायी गयी नहर आज तकरीबन चार सौ सालों बाद भी मलेथा तक पानी पहुंचा रही है।
देवकीनन्दन पाण्डे (Devkinandan Pandey)
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देवकीनंदन का जन्म कानपुर में हुआ था, उनके पिता शिवदत्त पाण्डे अपने क्षेत्र के जाने-माने डॉक्टर थे। मूलरूप से पाण्डे परिवार कुमाऊँ का था। देवकीनंदन पाण्डे (Devki Nandan Pandey) अपने स्कूली दिनों में मेधावी छात्र नहीं रहे लेकिन वे कभी भी अपनी कक्षा में फेल नहीं हुए। घूमने-फिरने, नाटक करने और खेलकूद में उनकी गहन दिलचस्पी थी। पाठ्य पुस्तके उन्हें कभी भी रास नहीं आईं किंतु नाटक, उपन्यास, कहानियॉं, जीवन चरित्र और इतिहास की पुस्तकें उन्हें हमेशा से आकर्षित करती थीं। उनकी आरंभिक शिक्षा अल्मोड़ा में हुई। देवकीनंदन पाण्डे के पिता पुस्तकों के अनन्य प्रेमी थे। इस वजह से घर में किताबों का अच्छा ख़ासा संकलन था जिससे देवकीनंदन को पठन-पाठन में दिलचस्पी होने लगी।
कॉलेज के दिनों में उनके अंग्रेजी के अध्यापक विशंभर दत्त भट्ट देवकीनंदन को रंगमंच के लिये प्रोत्साहित करने लगे। अल्मोड़ा (Almora) में देवकीनंदन ने कई दर्ज़न नाटकों में हिस्सा लिया इससे उनके आत्मविश्वास में मज़बूती आई। 40 के दशक में अल्मोड़ा जैसी छोटी जगह में केवल दो रेडियो थे। एक स्कूल के अध्यापक के घर और दूसरा एक व्यापारी के घर। युवा देवकीनंदन पाण्डे को दूसरे महायुद्ध के समाचारों को सुनकर बहुत रोमांच होता। वे प्रतिदिन सारा काम छोड़कर समाचार सुनने जाते। उन दिनों जर्मनी रेडियो के दो प्रसारकों लॉर्ड हो हो और डॉ. फ़ारूक़ी का बड़ा नाम था। दोनों लाजवाब प्रसारणकर्ता थे। उनकी आवाज़ हमेशा देवकीनंदन पाण्डे के दिलो-दिमाग़ में छाई रही। सन् 1941 में बी.ए. करने के लिए देवकीनंदन इलाहाबाद चले आए जहाँ का इलाहाबाद विश्वविद्यालय पूरे देश में विख्यात था।
1943 में देवकीनंदन ने लखनऊ में एक सरकारी नौकरी कर ली और केज्युअल आर्टिस्ट के रूप में एनाउंसर और ड्रामा आर्टिस्ट हेतु उनका चयन रेडियो लखनऊ पर हो गया। इस स्टेशन पर उर्दू प्रसारणकर्ताओं का बोलबाला था। देवकीनंदन पाण्डे हमेशा मानते रहे कि इस विशिष्ट भाषा के अध्ययन और सही उच्चारण की बारीकियों का अभ्यास उन्हें रेडियो लखनऊ से ही मिला।
भारत के आज़ाद होते ही आकाशवाणी पर समाचार बुलेटिनों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। दिल्ली स्टेशन पर अच्छी आवाज़ें ढूंढ़ने की पहल हुई। देवकीनंदन पाण्डे ने डिस्क पर अपनी आवाज़ रेकार्ड करके भेजी। फ़रवरी, 1948 में जब दिल्ली में आकाशवाणी की हिंदी समाचार सेवा शुरू हुई तो करीब 3000 उम्मीदवारों में उनकी आवाज़ और वाचन शैली को सर्वश्रेष्ठ पाया गया। उसके बाद से उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा।
1948 में आकाशवाणी में हिन्दी समाचार प्रभाग की स्थापना हुई। उस समय के समाचार वाचकों को हिन्दी-उर्दू दोनों आना ज़रूरी था। शुरू में मूल समाचार अंग्रेज़ी में लिखे जाते थे जिसका अनुवाद वाचक को करना होता था।
देवकीनंदन पाण्डे समाचार प्रसारण के समय घटनाक्रम से अपने आपको एकाकार कर लेते थे और यही वजह थी उनके पढ़ने का अंदाज़ करोड़ों श्रोताओं के दिल को छू जाता था। उनकी आवाज़ में एक जादुई स्पर्श था। तकनीक के अभाव में सिर्फ़ आवाज़ के बूते पर अपने आपको पूरे देश में एक घरेलू नाम बन जाने का करिश्मा पाण्डेजी ने किया। सरदार पटेल, लियाक़त अली ख़ान, मौलाना आज़ाद, गोविन्द वल्लभ पंत, पं. जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निधन का समाचार देवकीनंदन पाण्डे के स्वर में ही पूरे देश में पहुँचा। संजय गाँधी के आकस्मिक निधन का समाचार वाचन करने के लिये सेवानिवृत्त हो चुके पाण्डेजी को विशेष रूप से आकाशवाणी के दिल्ली स्टेशन पर आमंत्रित किया गया।
देवकीनंदन पांडे ने कई रेडियो नाटकों में भाग लिया था। उन्हें आधारशिला फ़िल्म और लोकप्रिय टेलिविजन सीरियल तमस में अपने अभिनय के जलवे दिखाने का मौका भी मिला था। खाने पीने का भी उन्हें बहुत शौक था।
देवकीनंदन पाण्डे को वॉइस ऑफ़ अमेरिका जैसी अंतरराष्ट्रीय प्रसारण संस्था से अपने यहाँ काम करने का ऑफ़र मिला लेकिन देश प्रेम ने उन्हें ऐसा करने से रोका। नए समाचार वाचकों के बारे में पाण्डेजी का कहना था जो कुछ करो श्रद्धा, ईमानदारी और मेहनत से करो। हमेशा चाक-चौबन्द और समसामयिक घटनाक्रम की जानकारी रखो। जितना ज़्यादा सुनोगे और पढ़ोगे उतना अच्छा बोल सकोगे। किसी शैली की नकल कभी मत करो। कोई ग़लती बताए तो उसे सर झुकाकर स्वीकार करो और बताने वाले के प्रति अनुगृह का भाव रखो। निर्दोष और सोच समझकर पढ़ने की आदत डालो; आत्मविश्वास आता जाएगा और पहचान बनती जाएगी।
उन्होंने फिल्म में काम किया लेकिन मेहनताने की अपेक्षा नहीं की। प्रॉडयूसर अमरजीत उनके एक्टर बेटे सुधीर का हवाला देकर आए थे इसलिए काम करने के लिए हां कह दी। जब मेहनताना नहीं मिला तो कोई भी मलात नहीं हुआ। उनका लेखन पक्ष भी काफी मजबूत था। उन्होंने कुमाऊं पर एक किताब ‘कुमाऊं- ए परस्पेक्टिव’ लिखी। इस महान बहुमुखी से प्रधान व्यक्तित्व ने अपनी अंतिम साँस 2001 में ली, लेकिन उनकी आवाज़ आज भी हमारे कानो में गुजती है। उनकी आवाज़ सुनने के लिए पूरा देश पागल था, आज उन्हें कुमाऊँ के गाँधी के नाम से जाना जाता है।
एडवर्ड जिम कार्बेट (Edward Jim Corbett)
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जन्म :-25 जुलाई, 1875
जन्मस्थान :- नैनीताल
मृत्यु :-19 अप्रैल, 1955
एडवर्ड जिम कार्बेट का जन्म 25 जुलाई, 1875 को नैनीताल में हुआ था। तब नैनीताल सयुंक्त प्रान्त का एक पहाड़ी जिला था, जो ब्रिटिश शासन के अधिन था। उनके पिता का नाम क्रिस्टोफर विलियम कार्बेट तथा माता का नाम मैरी जेन कार्बेट था। मैरी जेन विलियम की दूसरी पत्नी थी और जिम भी मैरी के दुसरे पति थे, दोनों के पहले पति-पत्नीयों को मृत्यु हो गई थी। मैरी के पहले पति से 3 बच्चें थे।
जिम कार्बेट के पिता विलियम कार्बेट की बहन और बहनोई की एक दुर्घटना में मृत्यु हो जाने के कारण उनके 3 बच्चों के पालन-पोषण का जिम्मा भी उन्होंने लिया। जिम अपने पिता के नौ संतानों में आठवी संतान थे। इस तरह जिन कार्बेट कुल बारह भाई-बहन थे।
जिम की प्रारम्भिक शिक्षा नैनीताल के ओपनिंग स्कूल से की बाद में सेंट जोसेफ कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन आर्थिक स्थिति ठीक नही होने के कारण पढाई बीच में छोड़कर 18 वर्ष की उम्र में मोकामा घाट (बिहार) जाकर वहाँ रेलवे में नौकरी करने लगे।
21 अप्रैल 1881 में 58 वर्ष की आयु में जिम के पिता की मृत्यु हो गई, जिसे से घर की आमदनी कम हो गई ओर मैरी जेन घर की आमदनी को बढ़ने के लिए व्यापार करने का निश्चय किया। नैनीताल में रह कर एक रेंटल एजेंसी की स्थापना की और सफलतापूर्वक चलाया। सन 1927 में 90 वर्ष की उम्र में मैरी जेन का भी निधन हो गया। जिम के माँ-बाप दोनों को नैनीताल के पास सूखाताल स्थित सेंट जान्स चर्च के कब्रिस्तान में दफनाया गया।
माँ के निधन के बाद जिन कार्बेट ने नैनीताल में कुछ दिन रेंटल एजेंसी के काम को ही आगे बढ़ाया। जिम कार्बेट ने अविवाहित रहकर बड़ी बहन कार्बेट मैगी के साथ अपना अधिकांश जीवन कालाढूंगी एवं नैनीताल के स्थानी ग्रामीण लोगो के बीच में रहकर बिताया। इस प्रकार उन्हें यहाँ के जंगलों और जानवरों से काफी लगाव हो गया। इसके साथ-साथ इनकी बहन मैगी को भी पक्षियों के प्रति काफी लगाव हो गया।
जिम कार्बेट एक अच्छे शिकारी, पर्यावरणविद, महान लेखक के साथ एक असाधारण व दयावान व्यक्ति भी थे। नैनीताल व कालाढूंगी के जंगलों में उनदिनों काफी संख्या में बाघ थे, और कई तो आदमखोर भी थे। जब कभी जिन नैनीताल एवं कालाढूंगी से दूर रहते तो गाँववालों की याद सताती रहती थी। जब भी गांववालों पर कोई विपत्ति अथवा नरभक्षी बाघ का आतंक उन्हें सताने लगता, वे अपने प्रिय जिम कार्बेट को तार द्वारा सूचित करते। वह तुरंत छुट्टी लेकर पहुँच जाते थे। इस बीच उन्होंने तीन आदमखोरों का शिकार भी किया। इस सन्दर्भ में जिम कार्बेट ने अपनी पुस्तक ‘मेरा भारत (My India)’ में लिखा है। इस प्रकार जिम नरभक्षी आदमखोरों को मारने के लिए लोकप्रिय हो गये।
1907 से 1938 के बीच जिम कार्बेट ने 33 नरभक्षियों का शिकार कर उन्हें मार गिराया। इनमें 19 बाघ और 14 तेंदुए थे। सरकारी रिकार्ड के अनुसार इन बड़ी बिल्लियों ने गाँवों में 1200 लोगों को मौत के घाट उतारा था।
मारे गए ज्यादातर बाघों और तेंदुए की खोपड़ी और शरीर के अन्य हिस्सों की जाँच के बाद जिम को पता चला की ये तमाम् आदमखोर किसी-न-किसी बीमारी से या घायल थे। अधिकांश घाव किसी गोली के लगने से बने थे। जिम के अनुसार घायल होने के बाद अधिकांश जानवर प्राकृतिक शिकार करने में असमर्थ होने के चलते आदमखोर बने थे। अपने इन आकलन का उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक “मैन ईटर्स ऑफ़ कुमाऊँ” में किया है।
जिम को हमेशा अकेले शिकार करना पसंद था। वे हमेशा जंगल में पैदल घूमते और शिकार करते थे। जिम ने अपनी जान जोखिम में डालकर कई लोगो की जान बचाई, इसी लिए लोग इन्हें ‘गोरा ब्राह्मण’ के नाम से भी जानते है।
शिकार-कथाओं के कुशल लेखकों में जिम कार्बेट का नाम विश्व में अग्रणीय है। आज कुमाऊँ-गढ़वाल की धरती पर इनके नाम से स्थापित जिम कार्बेट पार्कहै, जो विश्वप्रसिद्ध है। इस महान लेखक, शिकारी, पर्यावरणविद ने भारत का नाम बढ़ाया है। आज विश्व में उनका नाम प्रसिद्ध शिकारी के रुप में आदर से लिया जाता है।
जन्म :-25 दिसंबर 1970
जन्मस्थान :- नैनीतालमें
मृत्यु :-30 मई 1999
राजेश सिंह अधिकारी का जन्म 25 दिसंबर 1970 को नैनीताल में हुआ। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा सेंट जोसेफ़स कॉलेज से 1987 में हुई, और माध्यमिक शिक्षा गवर्मेंट इंटर कॉलेज नैनीताल से तथा बी. एस सी कुमाऊँ यूनिवर्सिटी, नैनीताल से हुआ। शुरुआत से ही सेना के प्रति राजेश का जो जब्जा था वो उन्हें प्रतिष्ठित भारतीय सैन्य अकादमी में ले आया और 11 दिसंबर 1993 को मेजर राजेश सिंह अधिकारी भारतीय सैन्य अकादमी से ग्रेनेडियर में कमिशन हुए।
सन 1999 में कारगिलका दौर शुरू हो गया। इसी बीच मेजर अधिकारी को कारगिल ऑपरेशन के लिए भेजा गया, उस ओपरेशन के लिए मेजर अधिकारी अपनी कंपनी की अगुआई कर रहे थे, तभी दुश्मन ने उन पर दोनों तरफ से मशीनगनों से भीषण हमला किया।
मेजर अधिकारी ने तुरंत अपनी रॉकेट लांचर टुकड़ी को दुश्मन को उलझाए रखने का निर्देश दिया और अत्यंत ही नजदीक की लड़ाई में दुश्मन के दो सैनिकों को मार डाला।
इसके बाद मेजर अधिकारी ने धीरज से काम लेते हुए अपनी मीडियम मशीनगन टुकड़ी को एक चट्टान के पीछे मोर्चा लेने और दुश्मन को उलझाए रखने को कहा, और अपनी हमलावर टीम के साथ एक-एक इंच आगे बढ़ते रहे।
इसी दौरान मेजर अधिकारी दुश्मन की गोलियों से गंभीर रूप से घायल हुए, फिर भी वह अपने सैनिकों को निर्देशित करते रहे और वहां से हटने से मना कर दिया।
उन्होने दुश्मन के दूसरे बंकर पर हमला किया और वहाँ काबिज सैनिक को मार गिराया, उन्होने तोलोलिंग ऑपरेशन में दो बंकरों पर कब्जा किया जो बाद में प्वाइंट 4590 को जीतने में मददगार साबित हुए, अंतत: वह देश की आन, बान, शान के लिए बलिदान हुए।
मेजर राजेश सिंह अधिकारी ने भारतीय सेना की सर्वोच्च परंपराओं को कायम रखते हुए दुश्मन की उपस्थिति में असाधारण वीरता व उत्कृष्ट नेतृत्व का प्रदर्शन किया, उन्हे मरणोपरांत महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।
नोट :- मेजर राजेश सिंह अधिकारीकी भारतीय सेना की तरफ से कारगिल युद्ध में उनके साहस को देखते हुए मरणोपरांत 1 जनवरी 1999 को महावीर चक्र ( Maha Vir Chakra) से सम्मानित किया गया।
जन्म :- 31 जनवरी, 1923
मृत्यु :-3 नवम्बर 1947
मेजर सोमनाथ शर्मा का जन्म 31 जनवरी, 1923 को जम्मू में हुआ था। इनके पिता मेजर अमरनाथ शर्मा सेना में डॉक्टर थे। मेजर सोमनाथ की शुरुआती स्कूली शिक्षा अलग-अलग जगह होती रही, जहाँ इनके पिता की पोस्टिंग होती थी। लेकिन बाद में उनकी पढ़ाई शेरवुडा, नैनीताल में हुई। मेजर सोमनाथ बचपन से ही खेल कूद में रुचि रखते थे।
सोमनाथ ने अपना सैनिक 22 फरवरी 1942 को इन्हें कुमाऊँ रेजिमेण्ट की चौथी बटालियन में सेकण्ड लेफ्टिनेण्ट के पद पर नियुक्ति मिली। इसी साल इन्हें डिप्टी असिस्टेण्ट क्वार्टर मास्टर जनरल बनाकर बर्मा (वर्तमान म्यामांर) मोर्चे पर भेजा गया। वहाँ इन्होंने बड़े साहस और कुशलता से अपनी टुकड़ी का नेतृत्व किया।
15 अगस्त, 1947 को भारत के स्वतन्त्र होते ही देश का दुखद विभाजन भी हो गया। जम्मू कश्मीर रियासत के राजा हरिसिंह असमंजस में थे। वे अपने राज्य को स्वतन्त्र रखना चाहते थे। दो महीने इसी कशमकश में बीत गये। इसका लाभ उठाकर पाकिस्तानी सैनिक कबाइलियों के वेश में कश्मीर हड़पने के लिए टूट पड़े।
वहाँ सक्रिय शेख अब्दुल्ला कश्मीर को अपनी जागीर बनाकर रखना चाहता था। रियासत के भारत में कानूनी विलय के बिना भारतीय शासन कुछ नहीं कर सकता था। जब राजा हरिसिंह ने जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान के पंजे में जाते देखा, तब उन्होंने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किये।
इसके साथ ही भारत सरकार के आदेश पर सेना सक्रिय हो गयी। मेजर सोमनाथ शर्मा की कम्पनी को श्रीनगर के पास बड़गाम हवाई अड्डे की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गयी। वे केवल 100 सैनिकों की अपनी टुकड़ी के साथ वहाँ डट गये। दूसरी ओर सात सौ से भी अधिक पाकिस्तानी सैनिक जमा थे। उनके पास शस्त्रास्त्र भी अधिक थे; पर साहस की धनी मेजर सोमनाथ शर्मा ने हिम्मत नहीं हारी। उनका आत्मविश्वास अटूट था। उन्होंने अपने ब्रिगेड मुख्यालय पर समाचार भेजा कि जब तक मेरे शरीर में एक भी बूँद खून और मेरे पास एक भी जवान शेष है, तब तक मैं लड़ता रहूँगा।
दोनों ओर से लगातार गोलाबारी हो रही थी। कम सैनिकों और गोला बारूद के बाद भी मेजर की टुकड़ी हमलावरों पर भारी पड़ रही थी। 3 नवम्बर, 1947 को शत्रुओं का सामना करते हुए एक हथगोला मेजर सोमनाथ के समीप आ गिरा। उनका सारा शरीर छलनी हो गया। खून के फव्वारे छूटने लगे। इस पर भी मेजर ने अपने सैनिकों को सन्देश दिया जो इस प्रकार थे –“दुश्मन हमसे केवल पचास गज की दूरी पर है। हमारी गिनती बहुत कम रह गई है। हम भयंकर गोली बारी का सामना कर रहे हैं फिर भी,मैं एक इंच भी पीछे नहीं हटूंगा और अपनी आखिरी गोली और आखिरी सैनिक तक डटा रहूँगा।“ यह सन्देश देते हुए मेजर सोमनाथ शर्मा ने प्राण त्याग दिये।
उनके बलिदान से सैनिकों का खून खौल गया। उन्होंने तेजी से हमला बोलकर शत्रुओं को मार भगाया। यदि वह हवाई अड्डा हाथ से चला जाता, तो पूरा कश्मीर आज पाकिस्तान के कब्जे में होता। मेजर सोमनाथ शर्मा को मरणोपरान्त ‘परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया। शौर्य और वीरता के इस अलंकरण के वे स्वतन्त्र भारत में प्रथम विजेता हैं। सेवानिवृत्त सेनाध्यक्ष जनरल विश्वनाथ शर्मा इनके छोटे भाई हैं।
नोट :- मेजर सोमनाथ शर्मा, उत्तराखण्ड व देश के पहले व्यक्ति थे जिन्हें 03 नवम्बर 1947 को ‘ परमवीर चक्र’ से सम्मानित किया गया (मरणोपरान्त)।
जन्म :-21 अप्रैल 1895
जन्मस्थान :- टिहरी गढ़वाल, मज्यूड़ गांव में
मृत्यु :-10 मार्च 1915
गबर सिंह नेगी (गब्बर सिंह नेगी) का जन्म 21 अप्रैल 1895 को उत्तराखंड राज्यके टिहरी जिले के चंबा के पास मज्यूड़ गांव में एक गरीब परिवार में हुआ था। उन्हें बचपन से ही देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा था। इसी जज्बे से उन्होंने अक्टूबर 1913 में गढ़वाल रायफल में भर्ती हो गये। भर्ती होने के कुछ ही समय बाद गढ़वाल रायफल के सेनिकों को प्रथम विश्व युद्ध के लिए फ्रांस भेज दिया गया, जहां 1915 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान न्यू शैपल में लड़ते-लड़ते 20 साल की अल्पायु में ही वो शहीद हो गए। मरणोपरांत गबर सिंह को ब्रिटिश सरकार के सबसे बड़े सम्मान विक्टोरिया क्रॉस से उन्हें सम्मानित किया गया। सबसे कम उम्र में विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित होने वाले शहीद गबर सिंह नेगी थे।
उनके मरणोपरांत से 21 अप्रैल को चंबा में स्थित उनके स्मारक पर गढ़वाल राइफल द्वारा रेतलिंग परेड कर उन्हें सलामी दी जाती है। और गढ़वाल राइफल का नाम विश्वभर में रोशन करने वाले वीर गब्बर सिंह नेगी की कुर्बानी को याद करने के लिए हर वर्ष शहीद मेले के रूप में मनाया जाता हैं ।
नोट :-ब्रिटिश सरकार के सबसे बड़े सम्मान विक्टोरिया क्रॉससे गबर सिंह नेगी (Gabar Singh Negi) को सम्मानित किया गया था।
कवि गुमानी पन्त जी का जन्म फरवरी 1790 को काशीपुर में हुआ था। इनके पिता देवनिधि पंत उप्रड़ा ग्राम ( पिथौरागढ़) के निवासी थे। इनकी माता का नाम देवमंजरी था। इनका मूल नाम लोकनाथ पन्त था। इनके पिता प्रेम से इन्हें‘गुमानी‘कहते थे, और कालांतर में वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुए। इनकी शिक्षा-दीक्षा मुरादाबाद के पंडित राधाकृष्ण वैद्यराज तथा मालौंज निवासी पंडित हरिदत्त ज्योतिर्विद की देखरेख में हुई।
ज्ञान की खोज में गुमानी जी कई वर्षों तक देवप्रयाग और हरिद्वार सहित हिमालयी क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे, इस दौरान उन्होंने साधु वेश में गुफाओं में भी वास किया। कहा जाता है कि देवप्रयाग क्षेत्र में किसी गुफा में साधनारत गुमानी जी को भगवान राम के दर्शन हो गये और भगवान श्री राम ने गुमानी जी से प्रसन्न होकर सात पीढियों तक का आध्यात्मिक ज्ञान और विद्या का वरदान दिया।
अपने जीवनकाल में गुमानी जी ने कोई महाकाव्य तो नहीं लिखा, लेकिन समकालीन परिस्थितियों पर बहुत कुछ लिखा। गुमानी जी मुख्यतः संस्कृत के कवि और रचनाकार थे। किन्तु खड़ी बोली और कुमाऊंनी में भी उन्होंने बहुत कुछ लिखा है। संस्कृत में श्लोक और भावपूर्ण कविता रचने में इन्हें विलक्षण प्रतिभा प्राप्त थी।
कुछ लोग उन्हें खड़ी बोली का प्रथम कवि भी मानते हैं (लेकिन हिन्दी साहित्य में ऐसा कहीं उल्लेख नहीं है)। ऐसा संभवतः इसलिये कि प्रख्याल हिन्दी नाटककार और कवि काशी के भारतेन्दु हरिशचन्द्र, जिन्हें हिन्दी साहित्य जगत में खडी बोली का पहला कवि होने का सम्मान प्राप्त है, उनका जन्म गुमानी जी के निधन (1846) के चार वर्ष बाद हुआ था। ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक “लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया “ में गुमानी जी को कुर्मांचल प्राचीन कवि माना है।
काशीपुर के राजा गुमान सिंह के दरबार में इनका बड़ा मान-सम्मान था, कुछ समय तक गुमानी जी टिहरी नरेश सुदर्शन शाह के दरबार में भी रहे। इनकी विद्वता की ख्याति पड़ोसी रियासतों- कांगड़ा, अलवर, नाहन, सिरमौर, ग्वालियर, पटियाला, टिहरी और नेपाल तक फ़ैली थी।
गुमानीविरचितसाहित्यिककृतियां
रामनामपंचपंचाशिका, राम महिमा, गंगा शतक, जगन्नाथश्टक, कृष्णाष्टक, रामसहस्त्रगणदण्डक, चित्रपछावली, कालिकाष्टक, तत्वविछोतिनी-पंचपंचाशिका, रामविनय, वि्ज्ञप्तिसार, नीतिशतक, शतोपदेश, ज्ञानभैषज्यमंजरी।
उच्च कोटि की उक्त कृतियों के अलावा हिन्दी, कुमाऊंनी और नेपाली में कवि गुमानी की कई और कवितायें है- दुर्जन दूषण, संद्रजाष्टकम, गंजझाक्रीड़ा पद्धति, समस्यापूर्ति, लोकोक्ति अवधूत वर्णनम, अंग्रेजी राज्य वर्णनम, राजांगरेजस्य राज्य वर्णनम, रामाष्टपदी, देवतास्तोत्राणि।
नोट :- कुमाऊं साहित्य के प्रथम कवि के नाम से भी जाना जाता है ।
श्रीमती गौरा देवी (Gaura Devi)
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जन्म :-1925
जन्म स्थान – चमोलीके लाता गांव
मृत्यु :-4जुलाई, 1991
गौरा देवी (Gaura Devi) का जन्म 1925 में उत्तराखंड राज्यके चमोली जिले के लाता गांव में श्री नारायण सिंह के घर में इनका हुआ था। गौरा देवी ने कक्षा पांच तक की शिक्षा ग्रहण की थी । मात्र 11 वर्ष की उम्र में इनका विवाह रैंणी गांव के मेहरबान सिंह से हुआ। जब गौरा देवी 22 वर्षीय थी तभी उनके पति का देहांत हो गया था, तब उनका एकमात्र पुत्र चन्द्र सिंह मात्र ढाई साल का था। गौरा देवी ने ससुराल में रहकर छोटे बच्चे की परवरिश, वृद्ध सास-ससुर की सेवा और खेती-बाड़ी, कारोबार के लिये अत्यन्त कष्टों का सामना करना पड़ा। उन्होंने अपने पुत्र को स्वालम्बी बनाया, उन दिनों भारत-तिब्बत व्यापार हुआ करता था, गौरा देवी ने उसके जरिये भी अपनी आजीविका का निर्वाह किया।
1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद यह व्यापार बन्द हो गया तो चन्द्र सिंह ने ठेकेदारी, ऊनी कारोबार और मजदूरी द्वारा आजीविका चलाई। 1970 की अलकनंदा की बाढ़ ने नयी पर्यावरणीय सोच को जन्म दिया। चंडी प्रसाद भट्टने गोपेश्वर, जिला चमोली में कार्यरत संस्था ‘‘दशौली ग्राम स्वराज्य मंडल’’ के स्वयं सेवकों को बाढ़ सुरक्षा कार्य करने के साथ-साथ बाढ़ आने के कारणों को भी समझाया। भारत-चीन युद्ध के दौरान बढ़ते मोटर मार्ग के बिछते जालों से पर्यावरणीय समस्याएं अधिक हुईं। अतः बाढ़ से प्रभावित लोगों में संवेदनशील पहाड़ों के प्रति चेतना जागी।
1972 में गौरा देवी (Gaura Devi) महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनी। नवम्बर 1973 और उसके बाद गोबिन्द सिंह रावत, चण्डी प्रसाद भट्ट, वासवानंद नौटियाल, हयात सिंह तथा कई छात्र उस क्षेत्र में आए। आस पास के गांवो तथा रैणी में सभाएं हुईं। जनवरी 1974 में रैंणी गांव के 2459 पेड़ों को चिन्हीत किया गया । 23 मार्च को रैंणी गांव में पेड़ों का कटान किये जाने के विरोध में गोपेश्वर में एक रैली का आयोजन हुआ, जिसमें गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया। यहीं से चिपको आन्दोलन (Chiko Andolan) की शुरुआत हुई, इस आन्दोलन की जननी श्रीमती गौरा देवी को माना जाता है।
इस महान व्यक्तित्व का निधन 4 जुलाई, 1991 को हुआ, यद्यपि आज गौरा देवी इस संसार में नहीं हैं, लेकिन उत्तराखण्ड ही हर महिला में वह अपने विचारों से विद्यमान हैं। हिमपुत्री की वनों की रक्षा की ललकार ने यह साबित कर दिया कि संगठित होकर महिलायें किसी भी कार्य को करने में सक्षम हो सकती है।
उपलब्धियां :-
*.गौरा देवी को 1986 में प्रथम वृक्ष मित्र पुरस्कार प्रदान किया गया। जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधीद्वारा प्रदान किया गया था।
श्री देव सुमन (Sri Dev Suman)
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जन्म :-25 मई, 1915
जन्मस्थान:- टिहरी गढ़वालके जौल गांव में
मृत्यु :-25 जुलाई 1944
श्री देव सुमन (Sri dev Suman) का जन्म उत्तराखंड राज्यके टिहरी गढ़वाल के जौल गांव में 25 मई, 1915 को हुआ था। उनके पिता का नाम पंहरीराम बडौनी तथा माता का नाम तारा देवी था। पिता वैद्य का कार्य करते थे। जब सुमन 3 वर्ष के थे, तभी उनके पिता का देहांत हो गया। पिता के इस आकस्मिक देहवासन से परिवार का सारा भार माता तारा देवी पर आ गया।
शिक्षा
श्रीदेव सुमन ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गाँव के ही स्कूल से हासिल की और सन 1929 ई0 में टिहरी मिडिल स्कूल से हिन्दी की माध्यमिक शिक्षा हासिल की। उच्च माध्यमिक शिक्षा के लिए वह देहरादूनचले गये। वहां उन्होने लगभग डेढ़ वर्ष तक सनातनधर्म स्कूल में अध्ययन किया। इसी दौरान वे सन् 1930 के नमक सत्याग्रह आन्दोलनमें कूद पड़े ओर उन्हे 14 दिन जेल में रखा गया और फिर कम उम्र बालक समझ कर उन्हें छोड़ दिया गया। इसके बाद स्कूल अध्यापन के साथ-साथ पंजाब युनिवर्सिटी व हिन्दी साहित्य सम्मेलन की परीक्षाओं की तैयारी करते रहे। उन्होंने पंजाब विश्वविद्यालय की रत्न भूषण और प्रभाकर तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन की विशारद् और साहित्य रत्न परीक्षाएं पास कर की और इस प्रकार हिन्दी साहित्य अध्ययन के अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। तत्पश्चात दिल्ली में जाकर अध्ययन व अध्यापन कार्य के साथ-साथ सुमन साहित्य (उनके कविताओं का संग्रह) में भी व्यस्त रहते थे।
कार्यक्षेत्र
सुमन ने 17 जून 1937 को ‘‘सुमन सौरभ’’ नामक 32 पेजों का यह संग्रह प्रकाशित किया। वे हिन्दू, धर्मराज, राष्ट्रमत, कर्मभूमि जैसे हिन्दी व अंग्रेजी के पत्रों के सम्पादन से जुड़े रहे। वे ‘हिन्दी साहित्य सम्मेलन’ के भी सक्रिय कार्यकर्ता थे। उन्होंने गढ़ देश सेवा संघ, हिमालय सेवा संघ, हिमालय प्रांतीय देशी राज्य प्रजा परिषद, हिमालय राष्ट्रीय शिक्षा परिषद आदि संस्थाओं के स्थापना की।
1938 में विनय लक्ष्मी से विवाह के कुछ समय बाद ही श्रीनगर गढ़वाल में आयोजित एक सम्मेलन में नेहरू जी की उपस्थिति में उन्होंने बहुत प्रभावी भाषण दिया। इससे स्वतंत्रता सेनानियों के प्रिय बनने के साथ ही उनका नाम शासन की काली सूची में भी आ गया। 1939 में सामन्ती अत्याचारों के विरुद्ध ‘टिहरी राज्य प्रजा मंडल’ की स्थापना हुई और सुमन जी को इसका अध्यक्ष बनाया गया। इसके लिए वे वर्धा में गांधी जी से भी मिले। 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन में वे 15 दिन जेल में रहे। 21 फरवरी, 1944 को उन पर राजद्रोह का मुकदमा भी लगाया गया।
जीवन का अंतिम दिनों में
शासन ने बौखलाकर उन्हें काल कोठरी में डालकर भारी हथकड़ी व बेड़ियों में कस दिया। राजनीतिक बन्दी होने के बाद भी उन पर अमानवीय अत्याचार किये गये। उन्हें जानबूझ कर खराब खाना दिया जाता था। बार-बार कहने पर भी कोई सुनवाई न होती देख 3 मई, 1944 से उन्होंने आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। शासन ने अनशन तुड़वाने का बहुत प्रयास किया; पर वे अडिग रहे और 84 दिन बाद 25 जुलाई, 1944 को जेल में ही उन्होंने शरीर त्याग दिया। जेलकर्मियों ने रात में ही उनका शव एक कंबल में लपेट कर भागीरथी और भिलंगना नदी के संगम स्थल पर फेंक दिया।
सुमन जी के बलिदान का अर्घ्य पाकर टिहरी राज्य में आंदोलन और तेज हो गया। 1 अगस्त, 1949 को टिहरी राज्य का भारतीय गणराज्य में विलय हुआ। तब से प्रतिवर्ष 25 जुलाई को सुमन जी के स्मृति में ‘सुमन दिवस’ मनाया जाता है। अब पुराना टिहरी शहर, जेल और काल कोठरी तो बांध में डूब गयी है, लेकिन नई टिहरी की जेल में वह हथकड़ी व बेड़ियां सुरक्षित हैं। हजारों लोग वहां जाकर उनके दर्शन कर उस अमर बलिदानी को श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।
पंडित नैन सिंह रावत (Pandit Nain Singh Rawat)
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जन्म :- 21 अक्तूबर 1830 जन्मस्थान :- पिथौरागढ़ जिले मिलम गांव में मृत्यु :- 1 फरवरी 1895 पंडित नैन सिंह रावत का जन्म पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी तहसील के मिलम गांव में 21 अक्तूबर 1830 को हुआ था। उनके पिता का नाम अमर सिंह था। पंडित नैन सिंह रावत ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही हासिल की लेकिन आर्थिक तंगी के कारण जल्दही पिता के साथ भारत और तिब्बत के बीच चलने वाले पारंपरिक व्यापार से जुड़ गये। इससे उन्हें अपने पिता के साथ तिब्बत के कई स्थानों पर जाने और उन्हें समझने का मौका मिला। उन्होंने तिब्बती भाषा सीखी जिससे आगे उन्हें काफी मदद मिली। हिन्दी और तिब्बती के अलावा उन्हें फारसी और अंग्रेजी का भी अच्छा ज्ञान था।इस महान अन्वेषक, सर्वेक्षक और मानचित्रकार ने अपनी यात्राओं की डायरियां भी तैयार की थी। उन्होंने अपनी जिंदगी का अधिकतर समय खोज और मानचित्र तैयार करने में बिताया। पंडित नैनसिंह के अलावा उनके भाई मणि सिंह और कल्याण सिंह और चचेरे भाई किशन सिंह ने भी मध्य एशिया का मानचित्र तैयार करने में भूमिका निभायी थी। इन्हें जर्मन भूगोलवेत्ताओं स्लागिंटवाइट बंधुओं एडोल्फ और राबर्ट ने सबसेपहले सर्वे का काम सौंपा था। ब्रिटिश राज में सर्वे आफइंडिया ने दस अप्रैल 1802 को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकल सर्वे (Great Trigonometrical Survey) (जीएसटी) की शुरुआत की थी।इस सर्वे का उद्देश्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा मध्य एशिया और महानहिमालय का मानचित्र तैयार करना था। इसके कुछ वर्षों बाद 1830 में रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी (Royal Geographical Society) की भी स्थापना हुई थी। तब तिब्बत ब्रिटेन के लिये एक रहस्य ही बना हुआ था औरवह जीएसटी के जरिये इसका मानचित्र तैयार करना चाहता था।इस दौरे से लौटने के बाद नैनसिंह अपने गांव के सरकारी स्कूल में शिक्षक बन गये थे और यहीं से उन्हें पंडित नाम मिला। तब किसी भी पढ़े लिखे या शिक्षक के लिये पंडित शब्द का उपयोग किया जाता था। वह 1863 तक अध्यापन का काम करते रहे।पंडित नैन सिंह और उनके भाई 1863 में जीएसटी से जुड़े और उन्होंने विशेष तौर पर नैन सिंह 1875 तक तिब्बत की खोज में लगे रहे। नैन सिंह और उनके भाई मणि सिंह को तत्कालीन शिक्षा अधिकारी एडमंड स्मिथ की सिफारिश पर कैप्टेन थामस जार्ज मोंटगोमेरी ने जीएसटी के तहत मध्य एशिया की खोज के लिये चयनित किया था। उनकावेतन 20 रूपये प्रति माह था। इन दोनों भाईयों को ग्रेट ट्रिगोनोमैट्रिकलसर्वे के देहरादून स्थित कार्यालय में दो साल तक प्रशिक्षण भी दिया गया था।जीएसटी के अंतर्गत पंडित नैन सिंह ने काठमांडो से लेकर ल्हासा और मानसरोवर झील का नक्शा तैयार किया।इसके बाद वह सतलुज और सिंध नदी के उदगम स्थलों तक गये। उन्होंने 1870 में डगलस फोर्सिथ के पहलेयरकंड यानि काशगर मिशन औरबाद में 1873 में इसी तरह के दूसरे मिशन में हिस्सा लिया था। इस बीच 1874 की गर्मियों में मिशन लेह पहुंचा तो तब तक कैप्टेन मोंटगोमेरी की जगह कैप्टेन हेनरी ट्रोटर ने ले ली थी। जीटीएस के सुपरिटेंडेंट जनरल जेम्स वाकर के निर्देश परकैप्टेन ट्रोटर ने पंडित नैन सिंह ने लेह से ल्हासा तक तिब्बत के उत्तरी भाग का मानचित्र तैयार करने की जिम्मेदारी सौंपी। उनका यह सबसे कठिन दौरा 15 जुलाई 1874 को लेह से शुरूहुआ था जो उनकी आखिरी खोज यात्रा भी साबित हुई। इसमें वह लद्दाख के लेह से होते हुए ल्हासा और फिर असम के तवांग पहुंचे थे। इस यात्रा के दौरान उन्होंने कई महत्वपूर्ण जानकारियां जुटायी जो बाद में बहुत उपयोगी साबित हुई। उन्हें ल्हासा से बीजिंग तक जानाथा लेकिन ऐसा संभव नहीं होने पर सांगपो यानि ब्रह्मपुत्र या भूटान के रास्ते भारत आने के निर्देश दिये गये थे।पंडित नैन सिंह 24 दिसंबरको तवांग पहुंचे थे लेकिनवहां उन्हें व्यापारी मानकर बंदी बना दिया गया और 17 फरवरी तक वह स्थानीय लोगों के कब्जे में रहे। आखिर में उन्हेंछोड़ दिया गया। वह एक मार्च 1875 को उदयगिरी पहुंचे और वहां स्थानीय सहायक कमांडर से मिले जिन्होंने टेलीग्राम करके कैप्टेन ट्रोटर को उनके सही सलामत लौटने की खबर दी। सहायक कमांडर ने ही उनकी गुवाहाटी तक जानेकी व्यवस्था की जहां उनकासांगपो से मिलन हुआ जो अब ब्रह्मपुत्र बन चुकी थी। गुवाहाटी से वह कोलकाता गये थे। इस तरह से पंडित ने लेह से लेकर उदयगिरी तक 1405 मील की यात्रा की थी। द ज्योग्राफिकल मैगजीन में 1876 में पहली बार उनका कार्यों पर लेख प्रकाशित हुआ था।पंडित नैन सिंह को उनके इस अद्भुत कार्यों के लिये देश और विदेश में कई पुरस्कार पदक भी मिले। रायल ज्योग्राफिकल सोसायटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था। उन्हें स्वर्ण पदक प्रदान करते हुए कर्नल युले ने कहा था कि किसी भीअन्य जीवित व्यक्ति की तुलना में एशिया के मानचित्र तैयार करने में उनका योगदान सर्वोपरि है। पेरिस के भूगोलवेत्ताओं की सोसायटी ने उन्हें स्वर्णजड़ित घड़ी प्रदान की। ब्रिटिश सरकार ने 1877 में उन्हें भारतीय साम्राज्य का साथी यानि सीआईई की उपाधिसे नवाजा। उन्हें रूहेलखंड में एक गांव जागीर के रूप में और साथ में 1000 रूपये दिये गये थे। भारतीय डाक विभाग ने उनकी उपलब्धि के 139 साल बाद 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट निकाला था। उनकीयात्राओं पर कई किताबें प्रकाशित हुई हैं। इनमें डेरेक वालेर की ‘द पंडित्स’ तथा शेखर पाठक और उमा भट्ट की ‘एशिया की पीठ पर’ महत्वपूर्ण हैं। इस महान अन्वेषक का 1 फरवरी 1895 में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। नोटà एशिया के मानचित्र तैयार करने में उनका योगदान सर्वोपरि है।ब्रिटिश सरकार ने 1877 में उन्हें भारतीय साम्राज्य का साथी यानि सीआईई की उपाधि से नवाजा। रॉयल जियोग्राफिकल सोसाइटी ने उन्हें स्वर्ण पदक देकर सम्मानित किया था।*.भारतीय डाक ने 27 जून 2004 को उन पर डाक टिकट निकाला था।
बैरिस्टर मुकुन्दी लाल(Barrister Mukundi Lal)
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जन्म:- 14 अक्टूबर, 1885 जन्मस्थान :- चमोली जिले के पाटली गांव में। मृत्यु :- 10 जनवरी 1982 बैरिस्टर मुकुन्दी लाल (Barrister Mukundi Lal) का जन्म 14 अक्टूबर, 1885 में चमोली जिले के पाटली गांव में हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा चोपड़ा (पौड़ी) के मिशन हाईस्कूल में हुई, उन्होंने हाईस्कूल और इण्टरमीडियेट की परीक्षा रैमजे इंटर कालेज, अल्मोड़ा से प्राप्त की थी। 1911 में इलाहाबाद से बी०ए० की परीक्षा पास कर दानवीर घनानन्द खंडूडी से मिली आर्थिक सहायता से 1913 में इंग्लैण्ड चले गये औरवहां से 1919 में बार-एट-ला की डिग्री प्राप्त की और स्वदेश लौटे।1914 में इंग्लैंड में उनकी मुलाकात महात्मा गांधी से हुई, अध्ययन काल में ही उन्होंने बोल्वेशिक साहित्य पढ़ा और उससे प्रभावित हुये। 6 अप्रैल, 1919 को बार-एट-ला की डिग्री के साथ योरोपीय आदर्शवाद और मार्क्सवादी विचारों को लेकर स्वदेश लौटे। बम्बई में खुफिया पुलिस ने इन्हें हिरासत में ले लिया, क्योंकि इनके पास मार्क्सवादी साहित्य था। बम्बई में ही इनसे करेण्डकर जी और हिन्दू समाचार पत्र के सम्पादक कस्तुरी रंगा अय्यर ने इन्हें मद्रास आने तथा हिन्दू में काम करने का निमंत्रण दिया। लेकिन बैरिस्टर ने यह आमंत्रण ठुकरा दिया और इलाहाबाद चले आये, जहां पर जवाहर लाल नेहरु ने स्वयं इनका स्वागत किया। इस दौरान उन्हें पं० मोती लाल नेहरु, जवाहर लाल नेहरु, रामेश्वरी नेहरु, सुन्दरलाल बहुगुणा और महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं के सम्पर्क में आने का अवसर मिला तथा वह उनके विचारों से प्रभावित हुये। इसके बाद मुकुन्दी लाल जी ने कांग्रेस की सदस्यता ले ली और अपने पहाड़ लौट आये। 1919 में इन्होंने लैंसडाउन में वकालत प्रारम्भ की, तभी ये स्थानीय और राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम सेनानियों के सम्पर्क में आये। 1920 में ये उत्तराखण्ड से प्रतिनिधिमण्डल लेकर अमृतसर के कांग्रेस सम्मेलन में गये और वहां पर उनकी मुलाकात जिन्ना से ही हुई।सम्मेलन से लौटने के बाद उन्होंने लैंसडाउन में कांग्रेस की स्थापना की और इसके 800 सद्स्य बनाये, इस समय उत्तराखण्ड में कुली बेगार आन्दोलन चरम पर था, मुकुन्दी लाल जी भीइस आन्दोलन में कूद पड़े।1923 और 1926 में मुकुन्दीलाल जी, जो अब बैरिस्टर सेनाम से प्रसिद्ध हो गये थे, गढ़वाल सीट से प्रान्तीय कौंसिल के लिये चुने गये, 1927 में यह कौंसिल के उपाध्यक्ष भी चुने गये। 1930 में इन्होंने कांग्रेस छोड़ दी। 1930 में वीर चन्द्र सिंह गढवाली और पेशावर काण्ड के सिपाहियो की पैरवी के लिये एबटाबाद चले आये, अंग्रेज सरकार अपने इस अपमान (राजद्रोह) का बदला वीर चन्द्र सिंह गढवाली को फांसी देकर चुकाना चाहती थी, लेकिन बैरिस्टर की दमदार बहस सेवे पेशावर कांड के सभी सिपाहियों को फांसी की सजा से बचाने में कामयाब रहे। इसके बाद 1938 से 1943 तक ये टिहरी रियासत के हाईकोर्ट के जज रहे और फिर 16 वर्षों तक टरपेन्टाइल फैक्ट्री, बरेली के जनरल मैनेजर रहे। 1930 में कांग्रेस से इस्तीफा देने के 32 साल बाद और प्रान्तीय कौंसिल के लिये 1936 में चुनाव हारने के बाद 1962 में इन्होंने गढ़वाल से 1962 में इन्होंने विधान सभा का निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते, तत्पश्चात पुनः कांग्रेस में सम्मिलित हो गये। 1967 में इन्होंने सक्रिय राजनीति से एक प्रकार से सन्यास ले लिया। एक कला समीक्षक, लेखक, सम्पादक-पत्रकार और संग्रहकार के रुप में इन्होंने अपना परचम लहराया। मौलाराम के कवि-चित्रकार व्यक्तित्व को प्रकाश में लाने में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है, बल्कि इसका श्रेय इन्हीं को जाता है। “गढ़वाल पेन्टिंग्स” नामक इनकी प्रसिद्ध पुस्तक का प्रकाशन 1969 में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने किया। 1972 में इन्हें उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी की फेलोशिप मिली, 1978 में अखिल भारतीय कला संस्थान ने अपनी स्वर्ण जयन्ती केअवसर पर इन्हें सम्मानित किया। इटली के प्रसिद्ध समाचार पत्र यंग इटली की तर्ज पर इन्होंने लैंसडाउन से “तरुण कुमाऊं” नाम से मासिक पत्र का सम्पादन और प्रकाशन शुरु किया। इसके अलावा बैरिस्टर एक कुशल शिकारी भी थे, उन्होंने अपने जीवन काल में 5 शेर और 23 बाघों का शिकार किया। कोटद्वार स्थित इनका घर “भारती भवन” पक्षियों और दुर्लभ फूलों का एक छोटा संग्रहालय है। बैरिस्टर हमेशा ही उत्तराखण्ड के विकास के लिये प्रयत्नशील रहे, गढ़्वाल कमिश्नरी का गठन और मौलाराम स्कूल आफ गढवाल आर्टस की स्थापना का श्रेय इन्हें ही जाता है। जीवन के 97 सालों में बैरिस्टर आर्य समाजी, ईसाई, सिख, हिन्दू और बौद्ध बने और बतौर बुद्ध ही निर्वाण प्राप्त किया। उत्तराखण्ड के प्रथम और अन्तिम बैरिस्टर के रुप में भी इनकी पहचान रही। वास्तव में मुकुन्दी लाल जी उत्तराखण्ड के लाल हैं। नोटà मोलाराम की चित्रकला को विश्व के सामने लाने का कार्य इन्होने ही किया। सन 1969 में भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने इनकें द्वारा लिखित “गढ़वाल पेन्टिंग्स” नामक प्रसिद्ध पुस्तक का प्रकाशन किया।
चन्द्र सिंह भण्डारी “गढ़वाली”
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जन्म-25 दिसम्बर, 1891 जन्मस्थान – मासी,पौड़ी गढ़वाल मृत्यु –1 अक्टूबर, 1979 चन्द्र सिंह भंडारी ‘गढ़वाली’ (Veer Chandra Singh Garhwali)का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में गढ़वाल के मासी ग्राम में हुआ था। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। वह प्रथम विश्व युद्ध का समय था। इसलिए 1 अगस्त 1915 को चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ मित्र राष्ट्रों की ओर सेयूरोप और मध्य पूर्वी क्षेत्र में भेज दिया। जहाँ से वे 1 फरवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी।चन्द्र सिंह ने 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया था।प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्धके समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये। कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। सन् 1920 से 1922 तक चंद्रसिंह युद्ध मोर्चे पर रहे और सन् 1922 में जब वे लैंसडौन लौटे तो उन्हें फिर हवलदार मेजर बना दिया गया। लैंसडौन में रहते वे एक कट्टर आर्यसमाज श्री टेकचंद वर्मा के संपर्क में आए और उनसे तथा आर्यसमाज के सिद्धांतों से प्रभावित होकर वे भी पक्के आर्यसमाजी बन गए। और इनकेअंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। पर अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया। उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 1930 में इनकी बटालियन को पेशावर जाने का हुक्म दिया गया, 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में किस्साखानी बाजार में खान अब्दुल गफ्फार खान के लालकुर्ती खुदाई खिदमतगारों की एक आम सभा हो रही थी। अंग्रेज आजादी के इन दीवानों को तितर-बितर करना चाहते थे। कैप्टेन रैकेट 72 गढ़वाली सिपाहियों को लेकर जलसे वाली जगह पहुंचे और निहत्थे पठानों पर गोली चलाने का हुक्म दिया। चन्द्र सिंह भण्डारी ने कैप्टेन रिकेट से कहा कि “हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते” इसके बाद गोरे सिपाहियों से गोली चलवाई गई। चन्द्र सिंह और गढ़वाली सिपाहियों का यह मानवतावादी साहस अंग्रेजी हुकूमत की खुली अवहेलना और राजद्रोह था। उनकी पूरी पल्टन एबटाबाद (पेशावर) में नजरबंद कर दीगई, उनपर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया। हवलदार चन्द्र सिंह भण्डारी को मृत्यु दण्ड की जगह आजीवन कारावास की सजा दी गई, 16 लोगों को लम्बी सजायें हुई, 39 लोगों को कोर्ट मार्शल केद्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। 7 लोगों को बर्खास्त कर दिया गया, इन सभी का संचित वेतन जब्त कर दिया गया। बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने गढ़वालियों की ओर से मुकदमे की पैरवी की थी। चन्द्र सिंह गढ़्वाली तत्काल ऎबटाबाद जेल भेज दिया गया, 26 सितम्बर, 1941को 11 साल, 3 महीन और 16 दिनजेल में बिताने के बाद वे रिहा हुये। लेकिन उन्हें गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद कुछ समय तक वे आनन्द भवन, इलाहाबाद रहने के बाद 1942 में अपने बच्चों के साथ वर्धा आश्रम में रहे। भारत छोड़ो आन्दोलन में उत्साही नवयुवकों ने इलाहाबाद में उन्हें अपना कमाण्डर इन चीफ नियुक्त किया। डा० कुशलानन्द गैरोला को डिक्टेटर बनाया गया, इसी दौरान उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया, कई जेलों में कठोर यातनायें दी गई, 6 अक्टूबर, 1942 को उन्हें सात साल की सजा हुई। 1945 में ही उन्हें जेल से छोड़ दिया गया, लेकिन फिर से गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। फिर अपने बच्चों के साथ हल्द्वानी आ गये।22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1957 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये। नोटàवीर चन्द्रसिंह गढ़वाली को पेशावर कांड के नायक के नाम से जाना जाता है। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। गांधीजी के शब्दों में “मेरे पास बड़े चंद्रसिंह गढ़वाली जैसे चार आदमी होते तो देश कभी का आजाद हो गया होता।” पंडित मोतीलाल नेहरू के शब्दों में “वीर चंद्रसिंह गढ़वाली को देश न भूले। उसे ‘गढ़वाली’ को हमारे नेता और इतिहासकार क्यों और कैसे भूल गए, यह हमारे सामने एक गंभीर विचारणीय प्रश्न है।जिस ‘गढ़वाली’ ने पेशावर कांड द्वारा साम्राज्यवादी अंग्रजों को यह बताया था कि वह भारतीय सैनिकों की बंदूकों और संगीनों के बलबूते पर अब हिंदुस्तान पर शासन नहीं कर सकते, उसकी इतनी उपेक्षा क्यों हुई- इतिहासकारों को इसका जवाब देना होगा।” बैरिस्टर मुकुन्दी लाल के शब्दों में “आजाद हिन्द फौज का बीज बोने वाला वही है।” आई०एन०ए० (INA) के जनरल मोहन सिंह (Mohan Singh) के शब्दों में “पेशावर विद्रोह ने हमें आजाद हिन्द फौज को संगठित करने की प्रेरणा दी।”“
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गोविंद बल्लभ पंत (Govind Ballabh Pant)
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जन्म :-10 सितम्बर, 1887 जन्मस्थान :-अल्मोड़ा के खूंट गाँव में मृत्यु :- 07 मार्च, 1961 पुरस्कार :- भारत रत्न गोविन्द बल्लभ पंत जी का जन्म 10 सितम्बर, 1887 को अल्मोड़ा ज़िले के खूंट (धामस) नामक गाँव में ब्राह्मण परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम मनोरथ पंत व माँ का नाम गोविंदी बाई पंत था। परंतु छोटी सी आयु में ही इनके पिता की मृत्यु हो जाने के कारण उनकी परवरिशकी ज़िम्मेदारी उनके दादा जी ‘बद्रीदत्त जोशी’ जी ने सम्भाली। गोविन्द ने 10 वर्ष की आयु तक शिक्षा घर पर ही ग्रहण की। 1897 में गोविन्द को स्थानीय ‘रामजे कॉलेज’ में प्राथमिक पाठशाला में दाखिल कराया गया। 1899 में 12 वर्ष की अल्पायु में उनका विवाह ‘गंगा देवी’ से हो गया, उस समय वह कक्षा सात में थे। गोविन्द जी की प्राथमिक वमाध्यमिक शिक्षा अल्मोड़ा से हुई। वर्ष 1905 में पंत जी अल्मोड़ा छोड़ कर इलाहाबाद चले गए अध्ययन के साथ ही साथ उनकी राजनीतिक क्षेत्र में भी रुचि बढ़ने लगी जिसके चलते वे कांग्रेस के स्वयंसेवक का कार्य भी करते थे। शिक्षा में इनकी रुचि व लगन के परिणाम स्वरूप वर्ष 1909 में उन्होंने क़ानून की शिक्षा सर्वोच्च अंको से प्राप्त की इनकी इसी उपलब्धि को देखते हुए उन्हें कॉलेज से ”लेम्सडेंन अवार्ड” से सम्मानित किया गया। 1910 में गोविन्द बल्लभ पंत ने अल्मोड़ा में वकालत आरम्भ की। अल्मोड़ा के बाद पंत जी ने कुछ महीने रानीखेत में वकालत की, फिर पंत जी वहाँ से काशीपुर आ गये। उन दिनों काशीपुर के मुक़दमें एस.डी.एम. (डिप्टी कलक्टर) की कोर्ट में पेश हुआ करते थे। यह अदालत ग्रीष्म काल में 6 महीने नैनीताल व सर्दियों के 6 महीने काशीपुर में रहती थी। इस प्रकार पंत जी का काशीपुर के बाद नैनीताल से सम्बन्ध जुड़ा। 1909 में पंत जी के पहले पुत्र की बीमारी से मृत्यु हो गयी और कुछ समय बाद पत्नी गंगादेवी की भीमृत्यु हो गयी। उस समय उनकी आयु 23 वर्ष की थी। वह गम्भीर व उदासीन रहने लगे तथा समस्त समय क़ानून व राजनीति को देने लगे। परिवार के दबाव पर 1912 में पंत जी का दूसरा विवाह श्रीमती कलादेवी से अल्मोड़ा में हुआ।पंत जी के कारण काशीपुर राजनीतिक तथा सामाजिक दृष्टियों से कुमाऊँ के अन्य नगरों की अपेक्षा अधिक जागरुक था। अंग्रेज़ शासकों ने काशीपुर नगर को काली सूची (Black List) में शामिल कर लिया। पंतजी के नेतृत्व के कारण अंग्रेज़ काशीपुर को “गोविन्दगढ़” भी कहते थे।1914 में काशीपुर में ‘प्रेमसभा’ की स्थापना पंत जी के प्रयत्नों से ही हुई। ब्रिटिश शासकों ने समझा कि समाज सुधार के नाम पर यहाँ आतंकवादी कार्यो को प्रोत्साहन दिया जाता है। फलस्वरूप इस सभा को हटाने के अनेक प्रयत्न किये गये पर पंत जी के प्रयत्नों से वह सफल नहीं हो पाये। 1914 में पंत जी के प्रयत्नों से ही ‘उदयराज हिन्दू हाईस्कूल’ की स्थापना हुई। राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के आरोप में ब्रिटिश सरकार ने इस स्कूल के विरुद्ध डिग्री दायर कर नीलामी के आदेश पारित कर दिये। जब पंत जी को पता चला तो उन्होंनें चन्दा मांगकर इसको पूरा किया। 1916 में पंत जी काशीपुर की ‘नोटीफाइड ऐरिया कमेटी’ में लिये गये। बाद में कमेटी की ‘शिक्षा समिति’ के अध्यक्ष बने। कुमायूं में सबसे पहले निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा लागू करने का श्रेय पंत जी को ही है। पंतजी ने कुमायूं में‘राष्ट्रीय आन्दोलन’ को ‘अंहिसा’ के आधार पर संगठित किया। आरम्भ से हीकुमाऊं के राजनीतिक आन्दोलन का नेतृत्व पंत जी के हाथों में रहा। कुमाऊं में राष्ट्रीय आन्दोलन का आरम्भ कुली उतार, जंगलात आंदोलन, स्वदेशी प्रचार तथा विदेशी कपडों की होली व लगान-बंदी आदि से हुआ। दिसम्बर 1921 में वे गान्धी जी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन के रास्ते खुली राजनीति में उतर आये। 9 अगस्त 1925 को काकोरी काण्ड करके उत्तर प्रदेश के कुछ नवयुवकों ने सरकारी खजाना लूट लियातो उनके मुकदमें की पैरवीके लिये अन्य वकीलों के साथ पन्त जी ने जी-जान से सहयोग किया। उस समय वे नैनीताल से स्वराज पार्टी के टिकट पर लेजिस्लेटिव कौन्सिल के सदस्य भी थे। 1927 में रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ व उनके तीन अन्य साथियों को फाँसी के फन्दे से बचाने के लिये उन्होंने पण्डित मदन मोहन मालवीय के साथ वायसराय को पत्र भी लिखा किन्तु गान्धी जी का समर्थन न मिल पाने से वे उस मिशन में कामयाब न हो सके। 1928 के साइमन कमीशन के बहिष्कार और 1930 के नमक सत्याग्रह में भी उन्होंने भाग लिया और मई 1930 में देहरादून जेल कीहवा भी खायी।नवम्बर, 1934 में गोविन्द बल्लभ पंत ‘रुहेलखण्ड-कुमाऊं’ क्षेत्र से केन्द्रीय विधान सभा के लिए निर्विरोध चुन लिये गये। उसके बाद 17 जुलाई 1937 से लेकर 2 नवम्बर 1939 तक वे ब्रिटिश भारत में संयुक्त प्रान्त अथवा उत्तर प्रदेश के पहले मुख्य मन्त्री बने। इसके बाद दोबारा उन्हें यही दायित्व फिर सौंपा गया औरवे 1 अप्रैल 1946 से 15 अगस्त 1947 तक संयुक्त प्रान्त (यू०पी०) के मुख्यमन्त्री रहे। जब भारतवर्ष का अपना संविधान बन गया और संयुक्त प्रान्त का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रखा गया तो फिर से तीसरी बार उन्हें ही इस पद के लिये सर्व सम्मति से उपयुक्त पाया गया। इस प्रकार स्वतन्त्र भारत के नवनामित राज्य के भी वे 26 जनवरी 1950 से लेकर 27 दिसम्बर 1954 तक मुख्य मन्त्री रहे। सरदार बल्लब भाई पटेल की मृत्युके बाद 10 जनवरी, 1955 को उन्होंने भारत के गृह मंत्री का पद संभाला ।सन् 1957 में गणतन्त्र दिवस पर महान देशभक्त, कुशल प्रशासक, सफल वक्ता, तर्क का धनी, उदारमना, भारतीय संविधान में हिन्दी भाषा को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने और जमींदारी प्रथा को खत्म कराने वालेपन्त जी को भारत की सर्वोच्च उपाधि ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया गया।7 मई 1961 को हृदयाघात आनेके कारण उनकी मृत्यु हो गयी। उस समय वे भारत सरकार में केन्द्रीय गृह मंत्री थे। उनके निधन के पश्चात लाल बहादुर शास्त्री उनके उत्तराधिकारी बने। नोटà उत्तराखंड से ‘भारत रत्न’ प्राप्त करने वाले पहले व्यक्ति। उत्तरप्रदेश के पहले मुख्यमंत्री के रूप में। गोविन्द बल्लभ पन्त को हिमालय पुत्र या भारत रत्न के नाम से भी जाना जाता है।SANDEEEP RAWAT 9927050303
आम आदमी से कुली का काम बिना पारिश्रमिक दिये कराने को कुली बेगार (Kuli Begar) कहा जाता था, विभिन्न ग्रामों के प्रधानो (पधानों) का यह दायित्व होता था, कि वह एक निश्चित अवधि के लिये, निश्चित संख्या में कुली शासक वर्ग को उपलब्ध करायेगा। इस कार्य हेतु प्रधान के पास बाकायदा एक रजिस्टर भी होता था, जिसमें सभी ग्राम वासियों के नाम लिखे होते थे और सभी को बारी-बारी यह काम करने के लिये बाध्य किया जाता था।
यह तो घोषित बेगार था और इसके अतिरिक्त शासक वर्ग के भ्रमण के दौरान उनके खान-पान से लेकर हर ऎशो-आराम की सुविधायें भी आम आदमी को ही जुटानी पड़ती थी।
कुली बेगार आन्दोलन का कारण
*.प्रधानो, जमीदारो और पटवारियों के मिलीभगत से व आपसी भेद-भाव के कारण जनता के बीच असन्तोष बढता गया क्योंकि गांव के प्रधान व पटवारी अपने व्यक्तिगत हितों को साधने या बैर भाव निकालने के लिये इस कुरीति को बढावा देने लगे। इस कुप्रथा के खिलाफ लोग एकत्रित होने लगे।
*.कभी-कभी तो लोगों को अत्यन्त घृणित काम करने के लिये भी मजबूर किया जाता था। जैसे कि अंग्रेजों की कमोङ या गन्दे कपङे आदि ढोना। इसके विरोध में भी लोग परस्पर एकजुट होने लगे।
*.अंग्रेजो द्वारा कुलियों का शारीरिक व मानसिक रूप से दोहन किया जा रहा था।
इतिहास
सबसे पहले चन्द शासकोंने राज्य में घोडों से सम्बन्धित एक कर ’घोडालों‘ निरूपति किया था, सम्भवतः कुली बेगार प्रथा का यह एक प्रारंभिक रूप था। आगे चल गोरखाओंके शासन में इस प्रथा ने व्यापक रूप ले लिया लेकिन व अंग्रेजों ने अपने प्रारम्भिक काल में ही इसे समाप्त कर दिया। पर धीरे-धीरे अंग्रेजों ने न केवल इस व्यवस्था को पुनः लागू किया परंतु इसे इसके दमकारी रूप तक पहुंचाया। पहले यह कर तब आम जनता पर नहीं वरन् उन मालगुजारों पर आरोपित किया गया था जो भू-स्वामियों या जमीदारों से कर वसूला करते थे। अतः देखा जाये तो यह प्रथा उन काश्तकारों को ही प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करती थी जो जमीन का मालिकाना हक रखते थे। पर वास्तविकता के धरातल पर सच यह था इन सम्पन्न भू-स्वामी व जमीदारों ने अपने हिस्सों का कुली बेगार, भूमि विहीन कृषकों, मजदूरों व समाज के कमजोर तबकों पर लाद दिया जिन्होंने इसे सशर्त पारिश्रमिक के रूप में स्वीकार लिया। इस प्रकार यह प्रथा यदा कदा विरोध के बावजूद चलती रही।
पृष्ठभूमि
1857 में विद्रोह की चिंगारी कुमाऊं में भी फैली। हल्द्वानी कुमांऊ क्षेत्र का प्रवेश द्वार था। वहां से उठे विद्रोह के स्वर को उसकी प्रारंभिक अवस्था में ही अंग्रेज कुचलने में समर्थ हुए। लेकिन उस समय के दमन का क्षोभ छिटपुट रूप से समय समय पर विभिन्न प्रतिरोध के रूपों में फूटता रहा। इसमें अंग्रेजों द्वारा कुमांऊ के जंगलों की कटान और उनके दोहन से उपजा हुआ असंतोष भी था। यह असंतोष घनीभूत होते होते एक बार फिर बीसवी सदी के पूर्वार्द्व में ’कुली विद्रोह‘ के रूप में फूट पडा।
1913 में कुली बेगार (Kuli Begar) यहां के निवासियों के लिये अनिवार्य कर दिया गया। इसका हर जगह पर विरोध किया गया, बद्री दत्त पाण्डे जीने इस आंदोलन की अगुवाई की। अल्मोड़ा अखबार के माध्यम से उन्होंने इस कुरीति के खिलाफ जनजागरण के साथ-साथ विरोध भी प्रारम्भ कर दिया। 1920 में नागपुर में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ, जिसमें पं० गोविन्द बल्लभ पंत, बद्रीदत्त पाण्डे, हर गोबिन्द पन्त, विक्टर मोहन जोशी, श्याम लाल शाह आदि लोग सम्मिलित हुये और बद्री दत्त पाण्डे जी ने कुली बेगार आन्दोलन के लिये महात्मा गांधी से आशीर्वाद लिया और वापस आकर इस कुरीति के खिलाफ जनजागरण करने लगे।
आन्दोलन
14 जनवरी, 1921 को उत्तरायणी पर्वके अवसर पर कुली बेगार आन्दोलन की शुरुआत हुई, इस आन्दोलन में आम आदमी की सहभागिता रही, अलग-अलग गांवों से आये लोगों के हुजूम ने इसे एक विशाल प्रदर्शन में बदल दिया। सरयू और गोमती के संगम (बगड़) के मैदान से इस आन्दोलन का उदघोष हुआ। इस आन्दोलन के शुरू होने से पहले ही जिलाधिकारी द्वारा पं० हरगोबिन्द पंत, लाला चिरंजीलाल और बद्री दत्त पाण्डे को नोटिस थमा दिया लेकिन इसका कोई असर उनपर नहीं हुआ, उपस्थित जनसमूह ने सबसे पहले बागनाथ जी के मंदिर में जाकर पूजा-अर्चना की और फिर 40 हजार लोगों का जुलूस सरयू बगड़ की ओर चल पड़ा, जुलूस में सबसे आगे एक झंडा था, जिसमें लिखा था“कुली बेगार बन्द करो”, इसके बाद सरयू मैदान में एक सभा हुई, इस सभा को सम्बोधित करते हुये बद्रीदत्त पाण्डे जी ने कहा“पवित्र सरयू का जल लेकर बागनाथ मंदिर को साक्षी मानकर प्रतिज्ञा करो कि आज से कुली उतार, कुली बेगार, बरदायिस नहीं देंगे।”सभी लोगों ने यह शपथ ली और गांवों के प्रधान अपने साथ कुली रजिस्टर लेकर आये थे, शंख ध्वनि और भारत माता की जय के नारों के बीच इन कुली रजिस्टरों को फाड़कर संगम में प्रवाहित कर दिया।
अल्मोडा (Almora) का तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर डायबल भीड़ में मौजूद था, उसने बद्री दत्त पाण्डे जी को बुलाकर कहा कि “तुमने दफा 144 का उल्लंघन किया है, तुम यहां से तुरंत चले जाओ, नहीं तो तुम्हें हिरासत में ले लूंगा।” लेकिन बद्रीदत्त पाण्डे जी ने दृढ़ता से कहा कि “अब मेरी लाश ही यहां से जायेगी”, यह सुनकर वह गुस्से में लाल हो गया, उसने भीड़ पर गोली चलानी चाही, लेकिन पुलिस बल कम होने के कारण वह इसे मूर्त रुप नहीं दे पाया।
इस सफल आंदोलन के बाद जनता ने बद्री दत्त पाण्डे जी को कुमाऊं केसरी की उपाधि दी, इस आन्दोलन का लोगों ने समर्थन ही नहीं किया बल्कि कड़ाई से पालन भी किया और इस प्रथा के विरोध में लोगों का प्रदर्शन जारी रहा। इसकी परिणिति यह हुई कि सरकार ने सदन में एक विधेयक लाकर इस प्रथा को समाप्त कर दिया।
इस आंदोलन से महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुये और स्वयं बागेश्वर आये और चनौंदा में गांधी आश्रम की स्थापना की। इसके बाद गांधी जी ने यंग इंडिया में इस आन्दोलन के बारे में लिखा कि “इसका प्रभाव संपूर्ण था, यह एक रक्तहीन क्रान्ति थी।”
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खटीमा गोली-काण्ड (KHATIMA GOLI KAND)
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उत्तराखण्डमें पृथक् राज्य के लिए आवाज सर्वप्रथम 5-6 मई 1938 को श्रीनगर में आयोजित भारतीय राष्ट्रिय कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में उठाई गई थी। लेकिन कई वर्षों के अथक परिश्रम व बलिदानों के बाद 9 नवंबर, 2000 को उत्तराँचल (वर्तमान उत्तराखंड) राज्य की स्थापना हुई, जिस के लिए अनेको आन्दोलन हुए और अनेकों लोगों को अपने प्राणों को न्योछावर करना पड़ा। इसी तरह का एक आन्दोलन 1 सितम्बर, 1994 को उधम सिंह नगरके खटीमा में हुआ।
1 सितम्बर, 1994 को उत्तराखण्ड राज्य आन्दोलन का काला दिन माना जाता है, क्योंकि इस दिन खटीमा में पृथक उत्तराखंड राज्य के लिए आंदोलनकारियों द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से खटीमा चौराहे पर जुलूस निकला जा रहा था। लेकिन पुलिसकर्मी के ने निहत्थे आंदोलनकारियों की आवाज जो दबानें के लिए अपनी बर्बरता का परिचय दिया, जो इससे पहले कहीं और देखने को नहीं मिला । इस आन्दोलन में पुलिस द्वारा बिना चेतावनी दिये ही आन्दोलनकारियों के ऊपर अंधाधुंध फायरिंग करदी गई, जिसके परिणामस्वरुप सात आन्दोलनकारियों की मृत्यु हो गई।
जिसमे शहीद आंदोलनकारी इस प्रकार है –
1.अमर शहीद स्व० भगवान सिंह सिरौला
2.अमर शहीद स्व० प्रताप सिंह
3.अमर शहीद स्व० सलीम अहमद
4.अमर शहीद स्व० गोपीचन्द
5.अमर शहीद स्व० धर्मानन्द भट्ट
6.अमर शहीद स्व० परमजीत सिंह
7.स्व० रामपाल
इस बर्बरता की ख़बर समूचे उत्तरप्रदेश (तत्कालीन) वर्तमान उत्तराखंड में आग की तरह फ़ेल गई, जिसके बहुत ही क्रूर परिणाम सामने आये।
परिणाम
इस घटना ने समूचे राज्य को झंझोर कर रख दिया। जिस के परिणामस्वरूप कई जगहों पर लोगो ने अपना भयंकर रूप दिखाते हुए शासन के प्रति अपना विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन वहां भी पुलिसकर्मी ने उनकी आवाज़ों को दबाने का भरसक प्रयास किया। इसी के परिणामस्वरूप 2 सितम्बर 1994 को मसूरी गोलीकाण्डभी सामने आया जिसमे पुलिस ने अपना कुरुर रूप का प्रदर्शन यहाँ भी किया।
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मसूरी गोलीकाण्ड (MUSSOORIE GOLI KAND)
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खटीमा गोली-काण्ड(Khatima Goli-Kand) के ही प्रतिफल में मसूरी गोली-काण्ड हुआ। यह घटना खटीमा गोली-काण्ड के दुसरे दिन 2 सितम्बर 1994 को मसूरी में हुई। इस घटना में भी पुलिस ने अपनी बर्बरता का परिचय दिया।
2 सितम्बर 1994 को मंसूरी में खटीमा गोली काण्ड के विरोध प्रदर्शन करने के लिए लोग एकत्रित हुई। जो शांतिपूर्ण तरीकें से खटीमा गोली काण्ड का विरोध कर रहे थे। और प्रशासन से बातचीत करने गई दो सगी बहनों को पुलिस ने गोली मार दी। इस क्रूर घटना का विरोध करने पर पुलिस द्वारा अंधाधुंध फायरिंग कर दी गई, जिसमें कई लोगों को गोली लगी और इसमें से तीन आन्दोलनकारियों की अस्पताल में मृत्यु हो गई। लेकिन जनता ने भी इसका विरोध प्रदर्शन जारी रखा और जनता भी हिंसक हो गई। इस जनसेलाव को रोकने के लिए पुलिस को पी.ए.सी. बुलानी पड़ी, लेकिन जनता ने पुलिस व पी. ए. सी. भी हमला कर दिया। जिसमे कई पुलिसकर्मी घायल भी हुए और पुलिस उपाधीक्षक उमाकांत त्रीपाठी की मौत हो गई।
मसूरी गोलीकांड में शहीद–
*.अमर शहीद स्व० बेलमती चौहान ।
*.अमर शहीद स्व० हंसा धनई ।
*.अमर शहीद स्व० बलबीर सिंह ।
*.अमर शहीद स्व० धनपत सिंह ।
*.अमर शहीद स्व० मदन मोहन ममगई ।
*.अमर शहीद स्व० राय सिंह बंगारी ।
इन दो घटनाओं ने देश के सम्मुख उत्तराखंड को पृथक राज्य के दर्जे में आग में घी डालने का काम किया । इन घटनाओ के विरोध में उत्तराखंड से लेकर दिल्ली तक काफी जनसभाए आयोजित हुई। इन शहीदों के लहू से ही आज उत्तराखंड को एक पृथक् राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ।
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मैती आन्दोलन (Maiti Andolan)
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उत्तराखंड राज्य में पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी कई आन्दोलन पहले से ही चले आ रहे है, जैसे- चिपको आन्दोलन। इसी तरह उत्तराखंड में एक और आन्दोलन चला, जिसका नाम ‘मैती आन्दोलन’ है। आज जो एक सामाजिक रीति की तरह समूचे गढ़वाल में प्रसिद्ध है। जिसमे सामान्य जनमानस बढ-चढ कर भाग लेते है। यह आन्दोलन पर्यावरण संरक्षण के लिए एक अनुठी मिसाल कायम कर चूका है। जो आज गढ़वाल में ही नही अपितु समूचे विश्व में भी अपनी छाप छोड़ चूका है।
मैती का तात्पर्य
उत्तराखंड राज्यमें ‘मैत’ शब्द का मतलब ‘मायका’ होता है, और ‘मैती’ शब्द का अर्थ ‘मायके वाले’ से है। मैती आन्दोलन का अभिप्राय उससें है, जब किसी भी लड़की की शादी हो रही हो, वह फेरे लेने के बाद वैदिक मंत्रोच्चार के बीच एक पेड़ लगाकर उसे भी अपना मैती बनाती है। जिस की देख-रेख उसके मैती अर्थात् मायके वाले अपने घर के सदस्य (पुत्री या बहिन) के सामान करते है।
आन्दोलन की प्रेरणा
मैती आन्दोलन के जनक श्री कल्याण सिंह रावत जी कहते है की, इस आन्दोलन की प्रेरणा उन्हें चिपको आंदोलन से मिली। जब सरकारी वृक्षारोपण अभियान विफल हो रहे थे। एक ही जगह पर पांच-पांच बार पेड़ लगाए जाते पर उसका नतीजा शून्य होता। इतनी बार पेड़ लगाने के बावजूद पेड़ दिखाई नहीं पड़ रहे थे। इन हालात को देखते हुए मन में यह बात आई कि जब तक हम लोगों को भावनात्मक रूप से सक्रिय नहीं करेंगे, तब तक वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रम सफल नहीं हो सकते। जब लोग भावनात्मक रूप से वृक्षारोपण से जुडेंगे तो पेड़ लगाने के बाद उसके चारों ओर दीवार या बाड़ लगाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। लोग खुद ही उसकी सुरक्षा करेंगे। इस तरह मैती की शुरुआत हुई।
आन्दोलनकीशुरुआत
इस पर्यावरणीय आन्दोलन की शुरुआत 1994 में चमोलीके ग्वालदम राजकीय इण्टर कालेज के जीव विज्ञान प्रवक्ता ‘श्री कल्याण सिंह रावत जी’ द्वारा की गई। इस आन्दोलन के तहत रावत जी ने सबसे पहले स्कूली बच्चों को प्रेरित किया, फिर धीरे-धीरे समूचे गाँव के लोगों को प्रेरित करने का कार्य किया। रावत जी के अनेक अभिनव प्रयोगों और गरीबों, विकलांगो, महिलाओं और छात्रों के बीच सामाजिक कार्यों के कारण मैती संगठन की पहचान सभी वर्गों के बीच बनाईं। इसके तहत गढ़वाल के किसी गांव में किसी लड़की की शादी होती है, तो विदाई के समय मैती बहनों द्वारा दूल्हा-दुल्हन को गांव के एक निश्चित स्थान पर ले जाकर फलदार पौधा दिया जाता है। वैदिक मंत्रें द्वारा दूल्हा इस पौधो को रोपित करता है तथा दुल्हन इसे पानी से सींचती है, फिर ब्राह्मण द्वारा इस नव दम्पत्ति को आशीर्वाद दिया जाता है। दूल्हा अपनी इच्छा अनुसार मैती बहनों को पैसे भी देता है। जिसका उपयोग पर्यावरण सुधारक कार्यों में और समाज के निर्धन बच्चों के पठन-पाठन में किया जाता है।
आन्दोलन का परिणाम
आज मैती एक आन्दोलन के ही रूप में नही, अपितु लोगो के लिए एक भावनात्मक लगाव के रूप में समूचे गढ़वाल में प्रसिद्ध है। यही कारण है, की आज जब भी गढ़वाल में कोई शादी का कार्यक्रम होता है, तो शादी के कार्ड में मैती कार्यक्रम का जिक्र भी होता है। मैती बहनों ने पूरे उत्तराखंड में पर्यावरण संरक्षण के लिए वृक्षारोपण के अलावा वन्यजीवों की रक्षा के साथ अंधविश्वास के खिलाफ न सिर्फ चेतना जगाई बल्कि लंबा संघर्ष भी किया। चौरींखाल पौड़ी गढ़वाल में बूंखाल मेले के दौरान पशुवध के खिलाफ संघर्ष किया। संघर्ष का परिणाम यह हुआ है कि जहां हर वर्ष इस मेले में चार सौ भैंसों की बलि दी जाती थी, वहीं उनकी संख्या अब चालीस से भी कम हो गई है। मैती संगठन ने पूरे उत्तराखंड में वन्य़प्राणियों के प्रति प्रेम पैदा करने के लिए आठ सौ किलोमीटर की महायात्रा का आयोजन किया और वन्य प्राणियों की रक्षा के लिए लोगों को जागरुक किया।
अब यह आंदोलन उत्तराखंड सहित देश के कई राज्यों में भी अपने जड़ें जमा चुका है। जिनमे से कुछ राज्यों में तो वहां की पाठ्य पुस्तकों में भी इस आंदोलन की गाथा को स्थान दिया गया है। कनाडा में मैती आंदोलन की खबर पढ़ कर वहां की पूर्व प्रधानमंत्री फ्लोरा डोनाल्ड आंदोलन के प्रवर्तक कल्याण सिंह रावत से मिलने गोचर आ गईं। वे मैती परंपरा से इतना प्रभावित हुई कि उन्होंने इसका कनाडा में प्रचार-प्रसार शुरु कर दिया। अब वहां भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं। मैती परंपरा से प्रभावित होकर कनाडा सहित अमेरिका, ऑस्ट्रिया, नार्वे, चीन, थाईलैंड और नेपाल में भी विवाह के मौके पर पेड़ लगाए जाने लगे हैं।
रम्माण उत्सव (Ramman Festival)
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उत्तराखण्डका जिक्र वैदिक काल से होता आ रहा है, इस लिए आज भी उत्तराखंड में रामायण-महाभारत काल की सेकड़ों विधाएं मौजूद हैं, जिनमें से कई विधाएं विलुप्त हो गई है और कई विधाएं विलुप्त होने की कगार पर पहुच चुकी है, लेकिन कई लोगों के अथक प्रयासों एवं दृढ़ निश्चय के द्वारा कई विधाओं के संरक्षण और विकास के लिए अभूतपूर्व काम किया है। और उत्तराखण्ड को समूचे विश्व पटल पर अपनी अलग पहचान दिलाई है। चाहे वह विश्व की सबसे लंबी पैदल यात्रा नंदा राजजात यात्राहो या फिर चंपावत के देवीधुरा में प्रसिद्ध बग्वाल युद्ध, यही सब पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है, जो उत्तराखंड की लोक संस्कूति से रू-ब-रू कराती हैं। साथ ही वर्षों पुरानी सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखने का प्रयास भी करते हैं। ऐसी ही एक लोक संस्कृतिक रम्माण है।
Ramman Festival (रम्माण उत्सव की झांकी गणतन्त्र दिवस के अवसर पर)
रम्माण क्या है
रम्माण उत्सव उत्तराखंड के चमोली जिलेके सलूड़ गांव में प्रतिवर्ष अप्रैल में आयोजित होता है। इस गांव के अलावा डुंग्री, बरोशी, सेलंग गांवों में भी रम्माण का आयोजन किया जाता है। इसमें सलूड़ गांव का रम्माण ज्यादा लोकप्रिय है। इसका आयोजन सलूड़-डुंग्रा की संयुक्त पंचायत करती है। रम्माण मेला कभी 11 दिन तो कभी 13 दिन तक भी मनाया जाता है। यह विविध कार्यक्रमों, पूजा और अनुष्ठानों की एक श्रृंखला है। इसमें सामूहिक पूजा, देवयात्रा, लोकनाट्य, नृत्य, गायन, मेला आदि विविध रंगी आयोजन होते हैं। इसमें परम्परागत पूजा-अनुष्ठान तथा मनोरंजक कार्यक्रम भी आयोजित होते है। यह भूम्याल देवता के वार्षिक पूजा का अवसर भी होता है एवं परिवारों और ग्राम-क्षेत्र के देवताओं से भेंट करने का मौका भी होता है।
रम्माण नाम की उत्पत्ति
अंतिम दिन लोकशैली में रामायण के कुछ चुनिंदा प्रसंगों को प्रस्तुत किया जाता है।रामायण के इन प्रसंगों की प्रस्तुति के कारण यह सम्पूर्ण आयोजन रम्माण के नाम से जाना जाता है।इन प्रसंगों के साथ बीच-बीच में पौराणिक, ऐतिहासिक एवं मिथकीय चरित्रों तथा घटनाओं को मुखौटा नृत्य शैली के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।
नृत्य शैली
*.रम्माण उत्सव में जिस नृत्य शैली का उपयोग किया जाता है, वह मुखौटा नृत्य शैली है। इस में नृत्यक अपने मुख में मुखौटा पहनता है, फिर नृत्यकला का प्रदर्शन करते है।
*.इसमें कोई भी संवाद पात्रों के बीच नहीं होता। पूरी रम्माण में 18 मुखौटों, 18 तालों, एक दर्जन जोड़ी ढोल-दमाऊ व आठ भंकोरों के अलावा झांझर व मजीरों के जरिए भावों की अभिव्यक्ति दी जाती है।
*.मुखौटों के दो रूप हैं।
*.पहला- द्यो पत्तर यानी देवताओं के मुखौटे।
*.दूसरा- ख्यल्यारी पत्तर यानी मनोरंजन के मुखौटे।
रम्माण के विशेष नृत्य
*.बण्या-बण्याण :-यह नृत्य तिब्बत के व्यापारियों पर आधारित, जिस में उन पर हुए चोरी व लूटपाट की घटना का विवरण नृत्य के माध्यम से प्रस्तुत करते है।
*.म्योर-मुरैण :-यह नृत्य पहाड़ो पर होने वाली दैनिक परेशानीयों जैसे :- पहाड़ों में लकड़ी और घास काटने के लिए जाते समय जंगली जानवरों द्वारा किए जाने वाले आक्रमण का चित्रण होता है।
*.माल-मल्ल :- इस नृत्य में स्थानीय लोगो व गोरखाओं के बीच हुए युद्ध का वर्णन होता है।
*.कुरू जोगी :- यह एक प्रकार का हास्य नृत्य है, इस में रम्माण का हास्य पात्र, जो अपने पूरे शरीर पर चिपकने वाली विशेष प्रकार की घास (कुरू) लगाकर लोगों के बीच चला जाता है। कुरू चिपकने के भय से लोग इधर-उधर भागते हैं, लेकिन कुरू जोगी उन पर अपने शरीर में चिपके कुरू को निकालकर फेंकता है। सामान्य भाषा में इसे एक जोकर की संज्ञा दी जा सकती है, जो लोगो को हँसाने और मनोरंजन करने का कार्य करता है।
सलूड़-डुंग्रा से विश्ब धरोहर तक का सफ़र
रम्माण कौथिग (उत्सव) वर्ष 2007 तक सलूड़ तक ही सीमित था। लेकिन गांव के ही शिक्षकडॉ. कुशल सिंह भंडारीकी मेहनत का नतीजा था, कि आज रम्माण को विश्व धरोहर में स्थान मिला हुआ है। डॉ. भंडारी ने रम्माण को लिपिबद्ध कर इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। उसके बाद इसे गढ़वाल विविलोक कला निष्पादन केंद्र की सहायता से वर्ष 2008 में दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र तक पहुंचाया। इस संस्थान को रम्माण की विशेषता इतनी पसंद आयी कि कला केंद्र की पूरी टीम सलूड-डूंग्रा पहुंची और वे लोग इस आयोजन से इतने अभिभूत हुए कि 40 लोगों की एक टीम को दिल्ली बुलाया गया। इस टीम ने दिल्ली में भी अपनी शानदार प्रस्तुतियां दीं। बाद में इसे भारत सरकार ने यूनेस्को भेज दिया।
2 अक्टूबर 2009 को यूनेस्को ने पैनखंडा में रम्माण को विश्व धरोहर घोषित किया। तथा आईसीएस (ICS) के दो सदस्यीय दल में शामिल जापानी मूल के होसिनो हिरोसी तथा यूमिको ने ग्रामवासियों को प्रमाणपत्र सौंपे। इस सफलता का श्रेय गढ़वाल विश्वद्यिालय केप्रोफेसर दाताराम पुरोहित, प्रसिद्ध छायाकारअरविंद मुद्गिल, रम्माण लोकजागर गायकथान सिंह नेगीवडॉ. कुशल सिंह भंडारीको जाता है। हर वर्ष आयोजित होने वाला रम्माण का शुभ मुहूर्त बैसाखी पर निकाला जाता है।
यूनेस्को व संस्कृति विभाग के सहयोग से आज गांव में रम्माण से जुड़े पौराणिक एवं पारंपरिक मुखौटों के लिए एक विशाल म्यूजियम तैयार किया जा रहा है। इस म्यूजियम में रम्माण से जुड़ी अन्य पौराणिक वस्तुओं को भी संग्रहीत किया जाएगा।