चंद राज्यवंश
UK GK BY SANDEEP RAWAT
चंद राज्यवंश संथापक – सोमचंद
राज्य चिन्ह – गाय
अंतिम राजा – महेन्द्रचंद
राज्य चिन्ह – गाय
अंतिम राजा – महेन्द्रचंद
राजा सोमचंद -: चन्द राजवंश के मूल
पुरुष सोमचन्द इलाहाबाद के निकट फूलपुर के निकट झूसी नामक स्थान से इस क्षेत्र में
आए। कत्यूरी राजवंश के अन्तिय शासक ब्रह्रमदेव ने अपनी पुत्री का विवाह सोमचन्द के
साथ करवाया और सोमचन्द ने लगभग 1027 ई• मे चन्द राजवंश की स्थापना की। कत्यूरियों के
पतन के साथ कुमाऊ में चंद वंश का उदय हुआ। सोमचन्द ने डोटी शासकों के अधीन उनकी कुलदेवी
के नाम चम्पावत (चरमावती) नगर की स्थापना की तथा अपनी राजधानी बनायीं। प्रराभ्म में
इस राज्य में केवल राजधानी चंपावत के आस पास का ही छेत्र सम्मिलित था, लेकिन बाद में
अल्मोड़ा, पिथौरागढ़, नैनीताल तथा नेपाल के भी कुछ छेत्र पर इनका अधिकार हुआ। सोमचन्द
ने प्रारंभ में चार किलेदारो की नियुक्ति की जो क्रमशः इस प्रकार है
1- कार्की
2- बोहरा
3- तड़ागी
4-चौधरी
इन्हें चार आल्य चराल कहा गया। सोमचन्द गोरखा राजा जयदेव मल्ल को कर देते थे इन गोरखा राजाओं को रैका कहा जाता था। कुमाऊ में ऐपड़ कला तथा पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत सोमचन्द द्वारा की गयी। सोमचन्द ने राजबुंगा किले का निर्माण किया
Note-: 1191 ई• का गोपेश्वर त्रिशूल तथा 1223 ई• के बालेश्वर मन्दिर का लेख से कुमाऊ क्षेत्र में डोटी शासकों के शासन का उल्लेख मिलता है
1- कार्की
2- बोहरा
3- तड़ागी
4-चौधरी
इन्हें चार आल्य चराल कहा गया। सोमचन्द गोरखा राजा जयदेव मल्ल को कर देते थे इन गोरखा राजाओं को रैका कहा जाता था। कुमाऊ में ऐपड़ कला तथा पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत सोमचन्द द्वारा की गयी। सोमचन्द ने राजबुंगा किले का निर्माण किया
Note-: 1191 ई• का गोपेश्वर त्रिशूल तथा 1223 ई• के बालेश्वर मन्दिर का लेख से कुमाऊ क्षेत्र में डोटी शासकों के शासन का उल्लेख मिलता है
राजा इन्द्रचंद -: राजा इन्द्रचंद
ने 20 वर्ष तक राज किया। “यह राजा बड़ा घमंडी बताया जाता है। अपने को इंद्र के समान
समझता था”। इस राजा ने अपने यहाँ रेशम का कारोबार खोला। रेशम के कीड़ों के 7 वीं सदी
में तिब्बत-राज्य में स्त्रोंगजांग गांपो की रानी लाई, और उसकी नेपाली रानी ने इसका
प्रचार नेपाल तक किया। वहाँ से यह कुमाऊ में लाया गया। यह कारोबार गोरख्याली राज्य
तक बराबर चलता रहा। ‘गोर्ख्योल’ में यह उत्तम कारोबार नष्ट हो गया। रेशम के कीड़ों के
चारे के वास्ते शहतूत(कीमू) के पेड़ बहुत बोये गये।
राजा थोहर चन्द -: राजा थोहर चन्द
लगभग 1261 ई• में गद्दी पर बैठा इसने चन्द वंश की पुनः स्थापना की।
राजा ज्ञानचंद उर्फ़ गरुड़ ज्ञान चंद
-: राज्याधिकार पाने पर राजा ज्ञानचंद ने सबसे पहला काम जो किया, वह दिल्ली नरेश के
पास जाने का था। राजा ज्ञानचंद ने दिल्ली के बादशाह फिरोज तुगलक के यहाँ चिट्टी भेजी
कि तराई-भावर प्रान्त मुद्दत से कुमाऊ राज्य का हिस्सा रहा है। पहले कत्यूरियों के
हाथ में था, अब चंद राजाओं के अधिकार में होना चहिये। 1365-1420 के मध्य यह पहला चन्द
राजा था जिसने फिरोज तुगलक के दरवार में भेट चढाई बादशाह मुह्हमद फिरोज तुगलक उस समय
शिकार पर थे। राजा ज्ञानचंद भी वहाँ चले गये। वहाँ उन्होंने तीर कमान से उड़ते हुए गरुड़
को मार डाला, जो एक सर्प को पकड़कर ले जा रहा था। बादशाह फिरोज तुगलक राजा ज्ञानचंद
साहब के कौशल से खुश हो गये। साथ ही उनको ‘गरुड़’ की उपाधि से विभूषित किया। तब से यह
राजा गरुड़ज्ञान चंद के नाम से प्रसिद्ध हुए। उसी समय फरमान लिखा कि तराई-भावर का इलाका
भागीरथी गंगा तक कुमाऊ के राजा के अधिकार में रहेगा। इनके शाशन काल में बहुत मार- काट
हुई। नीलू कठायत नामक सेनापति राजा गरुड़ज्ञानचंद के दरबार में था। यह पहला चन्द शासक
था जिसने सौर क्षेत्र पिथौरागढ में अधिकार किया सेरा खड़कोट ताम्रपत्र लेख नेपाली शासक
विजय बम तथा इसके मध्य सन्धि का उल्लेख मिलता है।
राजा उद्यान चंद -: राजा उद्यानचंद
ने चंपावत में बालेश्वर मंदिर का निर्माण कराया, यह गरुड़ज्ञानचंद के पौत्र थे। इनके
राज्य का विस्तार इनकी मृत्यु के समय था - उत्तर में सरयू से लेकर, दक्षिण में तराई
तक, पूर्व में काली से लेकर, पश्चिम में कोसी व् सूँवाल तक। बालेश्वर मंदिर के वास्तुकार
जगन्नाथ मिस्त्री थे । जगन्नाथ मिस्त्री ने ही एक हथिया नौले का निर्माण किया
राजा विक्रम चन्द -: राजा विक्रम
चन्द का बालेश्वर मंदिर ताम्र लेख से प्राप्त होता है जिसमें उनके लेखक गु्ंज शर्मा
वर्णित है
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भारती चन्द -: भारती चन्द यह पहला
चन्द शासक था जिसने डोटी शासकों से निजात दिलायी इसने सौर (पिथौरागढ) सिरा (डीडीहाट)
तक चन्द का अधिकार स्थापित किया। राजा रत्न चंद -: चंदो में सबसे पहला भूमि बंदोबस्त
राजा रत्नचंद ने ही कराया था। इन्होने 27 वर्ष तक शाशन किया और 1488 में स्वर्ग को
सिधारे।
राजा भीष्मचंद -: राजा भीष्मचंद
1555 में गद्दी पर बैठे, इनकी कोई संतान न थी। इन्होने राजा ताराचंद के पुत्र कल्याणसिंह
को गोद लिया था। राजा भीष्मचंद ने राजधानी चम्पावत से हटाकर किसी केंद्र के स्थान में
रखने की सोची। तब राजा ने अल्मोड़ा खगमरा के किले का जीर्णोधार कर उसे राजधानी स्थापित
करने का इरादा किया और वहाँ अल्मोड़ा में आलमनगर की नीव भी डाली और आलमनगर बसाया। इसने
अल्मोड़ा स्थित खगमरा कोट के किले का (1555-1560) निर्माण कराया। खस जाति श्रीगजुवाठिंगा
नामक एक सरदार ने सेना एकत्र कर, खगमरा कोट के किले पर चढाई कर दी। जब राजा भीष्मचंद
किले में सो रहे थे तो खस राजा ने चुपके से वहाँ जाकर राजा भीष्मचंद का सिर काट दिया
और उसके बहुत से साथियों को मौत के घाट उतार दिया। श्रीगजुवाठिंगा ने खुद को बारामण्डल
का राजा बना दिया पर उसकी यह स्वतंत्रा ज्यादा दिन न चली। ज्यों ही यह खबर कल्याणचंद
तक पहुची उसने अपने पिता की मृत्यु का जोरदार बदला लिया और सबको क़त्ल किया।
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राजा बालो कल्याणचंद -: राजा बालो
कल्याणचंद ने सन 1563 में अल्मोड़ा नगर बसाया और यहाँ चंद राजाओं की राजधानी स्थापित
की। कहते है “अल्मोड़ा घास ले जानेवाली अल्मोडियों से अल्मोड़ा नाम पड़ा”। पहले इसे आलमनगर
नाम दिया गया, नाम आलमनगर तो चला नहीं, अल्मोड़ा ही चल पड़ा। इसके अलावा इसे राजापुर
नाम से भी जाना जाता था। राजा बालो कल्याणचंद ने 1563 में लालमंडी किला बनवाया इसे
फोर्ट मोयरा भी कहा जाता है। यह पहला चन्द राजा था जिसने गंगोलीहाट पर अधिकार किया
था।
राजा रुद्र्चंद -: राजा रुद्र्चंद
1565 में गद्दी पर बैठे तब वह बहुत ही छोटे थे। हुस्सैनखां टुकुडिया नामक दिल्ली के
एक सूबेदार ने तराई- भावर छेत्र पर कब्ज़ा किया। इसने पर्वतीय छेत्र में भी लूटपाट मचाई(दो
बार) मंदिर तोड़े, व् लूट मचाई पर इसकी फौज बरसात के मौसम की वजह से पहाड़ों में टिक
न पाई। इसकी मृत्यु के बाद राजा रुद्र्चंद ने फौज एकत्रित कर तराई पर फिर से अधिकार
किया। जब इसकी शिकायत दिल्ली पहुची तो दिल्ली से नवाब कटघर बड़ी सेना लेकर चढ़ आये, उस
फौज के सामने राजा की फौज कुछ भी न थी। राजा ने यह पेशकश कि की सारी फौज न लड़कर दोनों
तरफ से एक-एक योद्धा भेजें जिनमे लड़ाई हो, और जो जीते भावर – तराई का छेत्र उसका। राजा
अपनी तरफ से स्वंय गये और विजयी भी रहे। इस तरह का युद्ध इकफा कहा जाता था। राजा रुद्र्चंद
की बहादुरी की खबर सुनकर अकबर ने उन्हें लाहौर बुलाया और वहाँ नागौर की लड़ाई में भेजा।
उस युद्ध में राजा व् कुमाउनी सेना ने बड़ी बहादुरी दिखाई, जिससे प्रसन्न होकर अकबर
ने राजा रुद्र्चंद को चौरासी माल का फरमान दिया और खिल्लत भी दी। चौरासी माल तराई-
भावर को कहते है, यह 84 कोस का टुकड़ा था। राजा रुद्र्चंद को दरबार में आने से बरी भी
कर दिया। राजा रुद्र्चंद ने रुद्रपुर नामक शहर बसाया, वहाँ महल व् किला भी बनवाया,
तराई – भावर में निरंतर उपद्रव होते रहते थे, किन्तु सबसे प्रथम राजा रुद्र्चंद ने
इसका पक्का इन्तेजाम किया। दिल्ली से अल्मोड़ा लौटने पर राजा ने मल्ला महल का निर्माण
कराया। इस समय वहां कचहरी व् खजाना है। राजा के दो कुंवर थे, जिनमे से बड़े जन्म से
अंधे कुँ. शक्ति सिंह गोसाई थे। दुसरे बेटे कुँ. लक्ष्मीचंद कहते है, यह शक्ति थी की
अपने सामने आदमी खड़ा करना, फिर उस आदमी के बोलने पर यह जान लेना कि अपने और उस आदमी
के बीच कितना अंतर है। इसी तरह शक्ति सिंह गोसाई ने, कहते है, तमाम जिले की नाप की
थी, और बंदोबस्ती शब्द जो कागजातों में आये है जैसे कि, बेलका, नाली, काछ, रत्ती, यासा,
पैसा, बीसी, ज्युला सब नाम उन्ही के चलाए है। कहते है की आँखे खुल जाने के लिए गोंसाईजी
ने ज्वालामुखी मंदिर में तपस्या की थी पर आँखे तो न खुली, पर जमीन की नाप तथा अन्य
राज्य प्रबन्ध का ज्ञान उन्हें काफी हो गया था। राजा रुद्र्चंद ने धर्म निर्णय पुस्तक
तथा उषा रुद्र गोदया नामक पुस्तकों की रचना की।
राजा लक्ष्मीचंद -: मूनाकोट ताम्रलेख
में इसे लक्ष्मण चन्द जबकि मानोदय पुस्तक में इसे लक्ष्मी चन्द कहा गया। राजा रुद्र्चंद
के बाद लक्ष्मीचंद गद्दी पर बैठे, शक्ति सिंह गुसाईं बड़े होने के नाते राजा के उत्तराधिकारी
थे। किन्तु अंधे होने की वजह से शक्ति गुसाईं ने अपने छोटे भाई लक्ष्मीचंद के लिए राज
गद्दी छोड़ दी। अंधे होने पर भी शक्ति सिंह गुसाईं को ज्ञान बहुत था विशेषकर नाप का।
अतः राजा लक्ष्मीचंद ने उनको मुल्क व् दरबार का इंतज़ाम करने को कहा। शक्ति गुसाईं ने
जमीन की नाप का दफ्तर जमीन के ऊपर ‘रकम’ (कर) लगाई। ज्युला, सिरती, बैरक, रक्षया, कूत,
भात, वगैरह करों का नाम रखा। यह पहला शासक था जिसने दारमा घाटी के शकों पर अधिकार किया।
सिपाहियों को कटक यानी फौज में भर्ती करते समय उनकी परीक्षा लेने का प्रबंध भी किया
गया। वीर सैनिक तथा बूढ़े सिपाहियों को जमीने व् जागीर दी गई। इसने अपने राज्य कर्मचारियों
को तीन भागों में बांटा
1- सरदार - परगने का अधिकारी
2- फौजदार - सैन्य अधिकारी
3- नेगी- सहयोगी कर्मचारी
1- सरदार - परगने का अधिकारी
2- फौजदार - सैन्य अधिकारी
3- नेगी- सहयोगी कर्मचारी
राजा लक्ष्मीचंद ने अल्मोड़ा में
महादेव का मंदिर बनाया, महादेव का नाम लक्ष्मीश्वर रखा। राजा लक्ष्मीचंद ने बागेश्वर
में बागनाथ मन्दिर का निर्माण कराया इसने न्यूवाली व ब्रिस्ताली (सैन्य) अदालतें बनायी
न्यूवाली के अन्तर्गत आम लोगों का न्यायिक कार्यवाही ब्रिस्ताली के अन्तर्गत सैनिक
न्यायिक कार्य राजा लक्ष्मीचंद ने साथ बार गढ़वाल पे चढाई की, और साथ बार यह हारे। इस
कारण लोगों ने जिसे किले से राजा लड़ते थे उसका नाम ‘स्यालबूंगा’ रखा। आठवी बार भी बागेश्वर
में देवी- देवताओं की पूजा कर गढ़वाल पे आक्रमण किया, राजा की कुछ महत्वपूर्ण विजय तो
नहीं हुई, किन्तु इस बार वह लूट-खटोसकर कुछ धन एकत्र किया। इससे खुस होकर राजा अल्मोड़ा
लौटे। पंडित रुद्रदत्त पंतजी लिखते है “इस राजा ने गढ़वाल को सर करने की खबर अल्मोड़ा
पहुचाने के लिए पहाड़ों की चोटी पर सुखी घास व् लकड़ियाँ के ढेर लगाये कि जिस समय गढ़वाल
का प्रदेश जीत लिया जाएगा, उन ढेरों में आग लगाई जाए, ताकि खबर अल्मोड़ा जल्द पहुच सकें”।
जीत के समय ऐसा ही किया गया। तब से अश्विन की सक्रांति के दिन सांयकाल के समय घास का
आदमी सा बनाकर उसमे फूल-कांस इत्यादि लगाकर लड़के जलाते है। गाते, नाचते, व् कूदते है
- “भैलो जी भैलो , भैलो खतडवा” गैद्दा की जीत, खतड की हर ; गैद्दा पडों श्योल, खतड
पड़ा भ्योल। यह उत्सव खतडवा कहलाता है। गैद्दा कुँमौन के राजा के सेनापति थे, खतडसिंह
कहा जाता है गढ़वाल के सेनापति थे। वह युद्ध में मारे गये। राजा रुद्र्चंद व् लक्ष्मीचंद
के समय कोई भारी विजय तो नहीं बस कुछ एक सरहदी लडाइयों में विजय प्राप्त हुई। राजा
लक्ष्मीचंद जहाँगीर के दरबार में भी गये थे।
राजा बाजबहादुरचंद -: बाजबहादुरचंद
चन्दवंश का सबसे शक्तिशाली राजा था। 1638 में गद्दी पर बैठे, यह बाजचंद या बाजाचंद
के नाम से भी जाने जाते है। उस समय भावर-तराई का इलाका फल-फूल रहा था, वहां सालाना
9 लाख तक की आमदनी हो रही थी। लक्ष्मीचंद और बाजचंद के मध्य राज करने वाले राजाओं का
समय घरेलू लड़ाई में ही बीता और वह तराई पर ध्यान न दे सके। इस वहज तराई पर पर कठेर
के हिन्दू मुखिया का कब्ज़ा हो गया था। राजा बाजचंद अपनी शिकायत लेकर बादशाह शाहजहाँ
के पास पहुचे। खूब सारे तोहफे भी ले गये – चंवर गाय, कस्तूरी मृग, चँवर, सोने चाँदी
के बर्तन इत्यादि। राजा ने बादशाह को कठेडियों की जुल्म की दास्तान सुनाई। बादशाह ने
कहा इस समय लड़ाई है, वो भी युद्ध में शामिल हो जावे और जीत में उन्हें भावर- तराई का
छेत्र दिया जाएगा। वहाँ उस समय 1654-55 में गढ़वाल सेना भेजी जा रही थी, ये भी वहाँ
भेजे गये। गढ़वाल के युद्ध में राजा ने बहुत बहादुरी दिखाई , इसलिए इन्हें बहादुर की
उपाधि दी गयी। राजा को जीत में वादेअनुसार तराई का छेत्र भी मिला। इसे भूप सिंह की
पुत्री तीलू रौतेली ने पराजित किया। इसने शकों तथा हुणियो से सीरदी नामक नगद कर वसूलना
शुरू किया । इसने तिब्बत में आक्रमण किया । बाजपुर नामक सहर बाजचंद ने ही बसाया था।
इन्होने गढ़वाल बधानगढ़ व् लोहबागढ़ दोनों पर चढाई की, और जुनागढ़ का किला भी छीना, वहाँ
से नंदादेवी को लाये और मल्लामहल में स्थापित किया। इस राजा का शाशन-काल काफी तेजस्वी
रहा। इन्होने कई परगने फतह किये। राज्य का विस्तार बढाया और कई नये सुधार किये, पर
भाग्य की बात, इनका अंतिम काल बहुत बुरा रहा। शाहजहाँ की तरह इनको उन्माद हो गया था,
इनके पुत्रकुँवर उद्योत चंद ने भी शाशन की बागडोर सँभालने के लिए बगावत की थी। राजा
को हरवक्त संदेह रहता था की कब कोई मार डाले, इस भय से की कोई उन्हें मार न डाले। इसलिए
उन्होंने अपने सब पुराने नौकर निकाल दिए, राजा की मृत्यु सन 1678 में अल्मोड़ा में हुई।
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राजा उद्योत चंद -: राजा उद्योत
चंद 1678 में गद्दी पर बैठे उद्योत चंदराजा बाज बहादुर चंद की मृत्यु के पश्चात निर्विरोध
व् ख़ुशी के साथ राजा बने। लोग भी प्रसन्न हुए की बुढा अन्यायी राजा मर गया है। अपने
पिता की तरह यह भी विद्या अनुरागी तथा शिक्षा-प्रेमी थे। इन्होने दूर-दूर देशों के
विद्वानों को अपने यहाँ, बुलाया और कुमाऊ में बसने का मौका दिया। बरम मुवानी पिथौरागढ
से इसका ताम्रलेख प्राप्त होता है, जिसने नेपाल को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनायी तथा
अजमेरगढ़ में अधिकार करने का उल्लेख किया गया है। इन्होने तल्ला महल का निर्माण करवाया।
यह राजा धर्म-कर्म के बड़े पक्के थे। इन्होने कई मंदिर बनवाये एवं यज्ञ किये। अपना अंतिम
समय आते देखकर इन्होने अपने जीवन का अंतिम समय पूजा व् प्रार्थना में व्यतीत किया और
अपने पुत्र ज्ञानचंद को गद्दी सौंप परलोक सिधार गये।
राजा ज्ञानचंद -: राजा ज्ञानचंद को वैसे राजकाज
इनके पिताराजा उद्योत चंद ने पहले ही सौंप दिया था। पूर्व के राजाओं द्वारा प्राय:
गद्दी पर बैठते ही डोटी (तब का एक स्वतंत्र राज्य) पर चढाई करते थे वैसे ही अब चंद
वंश के उत्तराधिकारी ने गढ़वाल पर चढाई करने का नियम सा बना लिया था। 1699 पर गढ़वाल
पर आक्रमण कर राजा ज्ञानचंद की फौज श्रीनगर गढ़वाल (गढ़वाल की राजधानी) तक पहुच गयी थी।
इसने बघानगढ़ी को लूट कर नन्दादेवी की स्वर्ण प्रतिमा अल्मोड़ा में स्थापित की। 10 वर्षतक
राज कर यह स्वर्गसिधार गये, इनके बाद इनके पुत्र कुं. जगतचंद गद्दी पर बैठे।
राजा जगतचंद -: इन्होने भी गद्दी
पर बैठते ही पिंडारी व् लोहबा के रास्ते गढ़वाल पर चढाई की, गढ़वाल के राजा विवश होकर
देहरादून भाग गये। गढ़वाल का राज्य इन्होने एक ब्राह्मण को दान में दे दिया। लूट में
प्राप्त धन को इन्होने गरीबों व् अपने सिपाहियों में बाँट दिया। कुछ धन नजराने में
दिल्ली के बादशाह महम्मद शाह के पास भी भेजा। इन्होने जुए के ऊपर राज-कर बैठाया। इतिहासकार
एटकिन्सन के मुताबिक राजा ने यह आमदनी भी दिल्ली दरबार भेजी। राजा जगतचंद का स्वभाव
बहुत मिलनसार तथा उच्चे दर्जे का बताया जाता है, वह प्रजा प्रिय राजा थे। सबसे प्रेमपूर्वक
मिलते थे और राज-काज में खूब दिलचस्पी लेते थे। चंद वंश का साम्रज्य इनके समय अपने
चरम पर था। चारो ओर शांति थी, प्रजा सुखी थी। इनके बाद से ही घरेलू झगड़े आरम्भ हुए,
राजा की पकड़ पहाड़ व् मैदान दोनों जगह ढीली होने लगी और चंदवंश की अवनति होने लगी। इसके
काल को चन्दो के उत्कर्ष काल कहा जाता हैं।
तथा कुमाऊ का स्वर्ण काल कहा जाता हैं इस राजा के समय दो ग्रन्थ बने
1.टीका जगतचन्द्रिका
2.टीका दुर्गा की
तथा कुमाऊ का स्वर्ण काल कहा जाता हैं इस राजा के समय दो ग्रन्थ बने
1.टीका जगतचन्द्रिका
2.टीका दुर्गा की
राजा देवीचंद -: झीझार ताम्रपत्र
चम्पावत में इसे “महाराज कुमार” व "श्री देवी सिंह गुसाई जीव” कहा गया है । इसके
काल में चाटुकारिता से धन खर्च के कारण इसे कुमाऊ का तुगलक कहा गया।
राजा अजीतचंद -: राजा देवीचंद का
कोई वारिस न होने के वजह से दरबारियों ने राजा ज्ञानचंद के नाती अजीतचंद को गद्दी पर
बैठाया। यह राजा दरबारियों के हाथ की कठपुतली मात्र था। सारा राज काज मानिक गैंडा व
पूरनमल गैंडा बिष्ट के हाथ में ही था, इन्होने बहुत अन्याय किये। जिसे कुमाऊ में गैंडागर्दी
के नाम से जाना जाता है। राजा अजीतचंद भी इसी गैंडागर्दी के शिकार हुए उन्हें भी मानिक
चंद व् पूरनचंद ने लात, घूंसों से पीटकर लकवाग्रस्त कर दिया और अंततः राजा अजीतचंद
मारे गये।
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कल्याण चन्द चतुर्थ -: राजा अजीतचंद
की मृत्यु के पश्चात इनके 18 दिन के पुत्र राजा कल्याण चन्द चतुर्थ को राज्यधिकारी
बनाया गया। इसके समय में 1730-1737 के मध्य कुमाऊ क्षेत्र में रोहिलो बरेली के मुसलमान
का आक्रमण हुआ मुसलमानों ने अल्मोड़ा पहुचकर सब मंदिर तोड़ दिए, सोने-चाँदी की मूर्तियाँ,
कलश, बर्तन आदि गलाकर सब अपने साथ ले गये। लोग घर छोडकर जंगलो में भाग गये, रोहिलो
ने राजसी दफ्तर व् कागजात जला दिए। जिस वजह से कुमाऊ के इतिहास की सामग्री को भारी
नुकसान हुआ। रोहिले 7 महीने तक कुमाऊ में रहे। एक संधि हुए जिसमे कुमाऊ छोड़ने के अवज
में राजा ने रोहिल्लो को 3 लाख रुपिये नगद दिए। यह धन गढ़वाल नरेश प्रदीपशाह ने उधार
दिए थे। राजा प्रदीपशाह अपने साथ राजा कल्याणचंद को लाये और उन्हें कुमाऊ की गद्दी
पर विराजित किया। दोनों राजाओं के इस बीच काफी घनिष्ठता बड़ी। जो कुछ बर्बादी मंदिर,
महलों तथा किलों की रोहिलों ने की थी कल्यांचंद ने उसकी मरमत करायी। सन 1745 में रोहिलों
ने दोबारा आक्रमण किया, इस बार कुमाऊ की फौज ने अदम शाहस एवं वीरता दिखाते हुए रोहिलों
को मार भगाया। इसने अल्मोड़ा में चौमेला महल का निर्माण किया कल्याण चन्द चतुर्थ के
समय प्रसिद्ध कवि शिव ने कल्याण चन्द्रोदमय की रचना की अपने अन्त समय में राजा कल्याणचंद
को आँखों की बीमारी हो गयी थी, सभी ने इस बीमारी को राजा के लिए कुकर्मो का फल माना।
राजा ने मृत्यु से पूर्व अल्पवयस्क कुँवर दीपचंद को राजगद्दी सौंपी और पं. शिव देव
जोशी को राज्य का संरक्षक बनाया।
राजा दीपचंद -: राजा दीपचंद गद्दी
पर बैठते समय बाल्यवस्था में थे, पं. शिवदेव जोशी ने ही सम्पूर्ण राज्यकाज संभाला।
इस राजा के समय की सबसे महत्वपूर्ण घटना पानीपत का तीसरा युद्ध है। सन 1761 में मराठों
के विरुद्ध लड़ाई में दिल्ली सल्तनत ने कुमाऊ नरेश से मदद मांगी थी। 4000 कुमाउनी सैनिक
सेनापति हरिराम एवं उप-सेनापति बीरबल नेगी के आधिपत्य में भेजी गयी। इस लड़ाई में कुमाऊ
सेना और रोहिल्ले एक साथ मिलकर मराठो का सामना किया। कुमाऊ सेना ने गजब का शाहस एवं
वीरता दिखाई, सन 1962 में युद्ध खत्म होने पर कुमैया सेना वापिस लौट आई। राजा दीपचंद
के समय की दूसरी मत्वपूर्ण घटना गढ़वाल के राजा प्रदीपशाह के साथ युद्ध है। राजा प्रदीपशाह
ने मांग रखी कि
1.राजा दीपचंद उनको चाचा मान कर पत्रों में जयदेव लिखें.
2.कुमाऊ द्वारा दबाये गये गढ़वाल के सारे छेत्र को वापिस करे अन्यथा गढ़वाल के राजा सारे कुमाऊ पर अधिकार कर लेगा।
3.रामगंगा को गढ़वाल, कुमाऊ की सरहद मानी जाए
1.राजा दीपचंद उनको चाचा मान कर पत्रों में जयदेव लिखें.
2.कुमाऊ द्वारा दबाये गये गढ़वाल के सारे छेत्र को वापिस करे अन्यथा गढ़वाल के राजा सारे कुमाऊ पर अधिकार कर लेगा।
3.रामगंगा को गढ़वाल, कुमाऊ की सरहद मानी जाए
राजा दीपचंद ने प्रथम दोनों मांगे
मान ली, परन्तु रामगंगा को सरहद मानने से इंकार कर दिया। अपने सलाहकारों की बातों में
आकर गढ़वाल राजा ने आक्रमण कर दिया, तामाढ़ोंन के पास युद्ध हुआ। गढ़वाल राजा की बहुत
बुरी हार हुई, राजा जान बचाकर जैसे तैसे वापिस अपने राज्य की तरफ भागे। पं. शिवदेव
जोशी ने भागते हुए राजा का पीछा न कर धर्म एवं बहादुरी का काम किया। इस बात से राजा
प्रदीपशाह प्रभावित हुए। फिर दोनों राजाओं के बीच संधि हुई, पगड़ी का आदान प्रदान हुआ।
इस तरह आपसी भाईचारा एवं शांति स्थापित हुई। पं. शिवदेव जोशी ने बड़ी कुशलता से राज्य
चलाया, जरुरत पड़ने पर दमनकारी नीति भी अपनाई। राजा की भी इनपर कृपा बनी रही। सन
1764 में पं. शिवदेव जोशी का काशीपुर में निधन हो गया। इनके मृत्यु के साथ ही चंद वंश
की जड़े उखड़ने लगी।
राजा मोहनचंद -: मोहन सिंह ने राजा
दीपचंद एवं उसके पुत्रों को षड्यंत्र रच मार डाला और स्वयं मोहनचंद के नाम से गद्दी
पर बैठ गया। इसी राजा के समय में गढ़वाल के राजा ललितशाह ने कुमाऊ पर आक्रमण कर अपने
अधीन कर दिया। राजा प्रदीपशाह के पुत्र राजा ललितशाह को पं. शिव देव जोशी ने पत्र भेज,
राजा मोहनचंद के खूनी शाशन पर अंकुश लगाने के लिए आमंत्रित किया था। सेनापति प्रेमपति
खंडूरी की अगुवाई में राजा ललितशाह की फौज आगे बड़ी और अल्मोड़ा को जीता। मोहनचंद अपनी
जान बचाकर लखनऊ के नवाब की शरण में चले गये और फिर वहाँ से रामपुर।
राजा प्रद्युम्नचंद -: राजा ललितशाह
ने अल्मोड़ा पहुँच, पं. शिवदेव जोशी की सलाह पर अपने बेटे प्रद्युम्न शाहकोराजा दीपचंद
का धर्मपुत्र बना का राजा प्रद्युम्नचंद के नाम से चंदो की राजगद्दी पर बैठाया।राजा
ललितशाह की मलेरिया से पीड़ित हो कर मृत्यु हो गयी,अतः उनके बड़े पुत्रजयकीर्तिशाह गढ़वाल
की राजगद्दी पर बैठे।राजा जयकीर्तिशाह ने पत्र भेज राजा प्रद्युम्न चंद को लिखा की
वे यथोचित सम्मान दिखाए एवं पत्र द्वारा भी सम्मान सूचित करें।जिसके जबाव में लिखा
गया की कुमाऊ ने कभी गढ़वाल की कभी भी महत्ता स्वीकार नहीं किया है और वह हर तरह से
उस गद्दी की मान-प्रतिष्ठा की रक्षा करंगे, जिस पर की वह बैठे है।इस उत्तर को सुनकर
गढ़वाल के राजा निरुतर हो गये, पर दिल ही दिल में रूठ गये।इस दौरान गद्दी से भगाए हुए
मोहनचंद राज्य वापिस पाने की कोशिस करने लगे।1400 नागो की फौज लेकर मोहनचंद ने प्रयास
भी किया जिसे हर्षदेव जोशी ने विफल किया।सुशिक्षित राजा के फौज के आगे नागा साधू न
टिक सके।इस बीच राजा जयकीर्ति शाह ने कुमाऊ पर आक्रमण कर दिया, किन्तु राजा की मृत्यु
हो गयी।कुमाऊ फौज ने शिवदेव जोशी के नेतृत्व में खूब लूटपाट मचाई, मदिरो को भी लूटा।राजा
जयकीर्ति शाह के मरने पर पराक्रम शाह ने राजा बनना चाहा, परन्तु राज्य के पंचो ने पं.
हर्ष देव जोशी के पास सुचना भेजी कि गढ़वाल राज्य का बंदोबस्त राजा प्रद्युम्नचंद की
मर्जी के मुताबिक हो।निश्चय हुआ कि गढ़वाल-कुमाऊ का एक ही राजा हो,राजा प्रद्युम्न चंद
दोनों राज्यों के राजा बने ये फैसला पराक्रम शाह के अतिरिक्त सभी को पसंद आया।गढ़वाल
के प्रबध हेतु राजा प्रद्युम्न चंद गढ़वाल गये, कुमाऊ का प्रबंध हर्षदेव जोशी के हाथ
में रहा। राजाप्रद्युम्नचंद, प्रद्युम्न शाह के नाम से गढ़वाल के राजा बने।7 वर्ष तक
कुमाऊ की राजगद्दी पर बैठ कर प्रद्युम्न चंद राजा मोहनचंद के षड्यंत्र के शिकार हुए,
और मजबूरी वश उन्हें कुमाऊ की राजगद्दी छोडनी पड़ी।
राजा मोहनचंद (दूसरी बार) -: अनेकों
जगह भटक-भटक कर अंततः मोहनचंद दोबारा राजगद्दी पर बैठने में कामयाब रहे।दोबारा गद्दी
पर बैठते समय राज्य खजाना पुरी तरह खाली हो गया था।फौज को देने के लिए भी धन नहीं था।राजा
मोहनचंद ने ‘माँगा’ कर लगाया।पं. हर्ष देव जोशी ने फौज जुटाकर मोहनचंद के विरुद्ध युद्ध
किया और विजय भी हासिल की।राजा मोहनचंद को कैद में डाल दिया जहाँ उनकी मृत्यु हो गयी।मोहनचंद
के मरने के बाद पं. हर्षदेव जोशी फिर से कुमाऊ के सर्वेसर्वा बन गये पर वह अच्छी तरह
से जानते थे वह किसी चंद के नाम से खुद तो राज्य कर सकते थे, किन्तु वह स्वयं राजगद्दी
पर नहीं बैठ सकते।राजा उद्योत चंद के एक रिश्तेदार कुं. शिवसिंह उन्हें मिले, अतः उन्ही
को शिवचंद के नाम से राजा बनाया गया।यह नाम- मात्र के राजा थे।इन्होने बस एक साल राज
किया।
राजा महेन्द्रचंद (1788-1790)
-: पं. हर्षदेव जोशी ज्यादा दिनों तक कुमाऊ का प्रबंधन न सभाल सके।1788 में राजा मोहनचंद
के पुत्र महेन्द्रचंद गद्दी पर बैठे। पं. हर्षदेव जोशी गढ़वाल को भाग गये।1790 में नेपाल
के गोरखाओ ने राजा महेन्द्रचंद को हवालबाग में एक साधारण से युद्ध में पराजित कर अल्मोड़ा
पर अधिकार कर लिया। गोरखाओ सेनापति अमर सिंह थापा से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।और
फिर गोरखाओ ने सम्पूर्ण कुमांऊ पर अधिकार कर लिया। यह चन्द वंश का अन्तिम शासक था।
इस प्रकार चंद राजवंश का अंत हो गया।
चंद वंश का इतिहास बहुत ही गहन एवं
विस्तृत है।उस इतिहास के कुछ एक अंश यहाँ पर लिखे गये है।चंद वंश में हुए विभिन्न राजाओं
के राज्यकाल के अनुरूप चंद वंश का इतिहास बताने की कोशिश की गयी है।रोहिलों एवं गोरखाओं
के आक्रमण से इस इतिहास से जुडी काफी कड़ियाँ नष्ट जरूर हुई है।यह नोट्स पूर्णतः ‘कुमाऊ
का इतिहास – बद्रीदत्त पाण्डे’, एवं अन्य श्रोतों से ली गयी है
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